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________________ सप्तम अध्याय - - - - - - - - - - . . . . पडा है तो उसे नीचे उतारना पडता है, और अन्त में उसकी अस्थियां हरिद्वार मे ले जानी होती है। किन्तु जैनधर्म इन बातो मे कोई विश्वास नहीं रखता। यह कहता है कि व्यक्ति खाट पर मर जाए या नीचे, तथा छत पर किसी को प्राणान्त हो जाए या भूमि पर, इससे कोई फर्क नही पड़ता । गति के साथ इसका कोई सम्बन्ध नही है । गति का सम्बन्ध हृदय की शुद्धि से है। हृदय और आचरण अच्छा हो, फिर कही भी मृत्यु आ जाए, गति हो जायगी, यदि हृदय और पाचरण दूषित हैं तो भूमि पर प्राण छोडने पर भी गति नही हो सकती। जीवन का भविष्य उज्ज्वल नहीं बन सकता। दूसरी वात, मरणासन्न व्यक्ति को छूने से गति विगडती है, सुधरती नही। यह तो निर्विवाद वात है कि मृत्यु-शैय्या पर पडा व्यक्ति महान वेदना और कप्ट का सामना कर रहा होता है, उस समय उसे मारणान्तिक दुख होता है। ऐसी दशा मे यदि उसे स्पर्श भी किया जावे तो वह भी उसके लिए दुःखप्रद होता है । उससे उसे वेदना होती है। उसे क्रोध आता है । असमर्थता के कारण भले ही वह बोल नहीं पाता, तथापि भीतर से वह झु झला उठता है। ऐसी दशा में यदि उस के सारे शरीर को ही उठाकर इधर-उधर रखा जाए तो उसे कितनी महान वेदना होती होगी, कितना महान क्रोध आता होगा? यह स्वतः स्पष्ट हो जाता है । सिद्धात है कि मृत्यु की घडा का क्रोध परलोक को बिगाड़ देता है। फलतः, अन्त गति सो गति,इस सत्य के प्राधार पर उसकी गति दिगड़ जाती है, सुधरती नही ! प्रत. मरणासन्न व्यक्ति को उठाना, या इधर-उधर उसे रखना, ये सब प्रवृत्तिया नहीं करनी चाहिए, क्योकि इससे गति विगडती है। - मृतक की अस्थिया किसी भी जल-प्रवाह मे प्रवाहित की जा
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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