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________________ प्रश्नो के उत्तर समस्त प्राणी जगत का सर्वेसर्वा है इसके बाद ज्यो-ज्यो साप्रदायिक अभिनिवेश बढता गया, त्योत्यो कुछ दार्गनिको एव विचारको के मन मे एक-दूसरी परपरा को या सप्रदाय को नीचा दिखाने का भाव बढता गया और इसी कारण उभय शव्दो की परिभापा मे परिवर्तन होता गया । पास्तिक-नास्तिक गब्द की परिभाषा के बदले हुए रूप परमत विद्वेष के परिचायक है । इस से यह स्पष्ट पता लगता है कि दार्शनिक युग में सांप्रदायिक मनोवृत्ति का काफी प्राबल्य था और उस युग मे ये दार्शनिक अपने आप को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए दूसरी सप्रदायो पर शब्दो का कीचड उछाला करते थे। इसी साप्रदायिकता का परिणाम है कि विशाल एव व्यापक अर्थ में प्रयुक्तमान आस्तिक-नास्तिक गव्द की परिभाषा को एक साप्रदायिक दायरे मे वाधने का प्रयत्न किया गया और ईश्वर कर्तृत्व के साथ यह भी जोड दिया गया कि जो वेद को प्रमाणिक नही मानते वे नास्तिक है। इस शब्द को जोडा ही नही गया, वल्कि और सभी अर्थो को गौण करके केवल इतनी ही परिभाषा बना दी कि जो वेद को प्रामाःणक नही मानता वह नास्तिक है और इसी अपेक्षा से जैन एव वौद्ध दर्शन को नास्तिक दर्शन कहा गया। वस्तुत. देखा जाए तो जैन दर्शन नास्तिक दर्शन नही, आस्तिक दर्शन है। परन्तु, साप्रदायिक अभिनिवेश के कारण मनुष्य सत्य को झुठला कर असत्य को स्थापना एव परूपणा करने से नहीं हिचकना, यह इसका ज्वलन्त उदाहरण है। एक वात यह भी ध्यान देने योग्य है कि वैदिक पुराणो मे अद्वैत वेदान्त के प्रतिपादक आचार्य शंकर को भी जैन दर्शन, वौद्ध दर्शन और चार्वाक दर्शन की तरह नास्तिक कहा है और उस के द्वारा परूपित मायावाद को असत्-मिथ्या शास्त्र कहा है ।,मायावाद एक तरह
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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