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________________ २. ~~~~~~~~ ~ anwarmarrian, पञ्चम अध्याय - जिस अर्थ मे प्रयोग होता है, उस अर्थ को या परिभाषा को स्पष्ट कर के उस के रूप को व्यवस्थित बना देता है, उस मे रही हुई उच्चारण की अशुद्धता या कमी को दूर कर देता है। . इस से यह स्पष्ट होता है कि पाणिनीय एव शाकटायन से भो पहले आस्तिक-नास्तिक शब्द का प्रयोग एव परलोक आदि के स्वरूप को स्वीकार करने और अस्वीकार करने के अर्थ मे ही हुआ था और वैयाकरणिको ने उसी अर्थ को स्वीकार करते हुए उस की परिभाषा की है। अत. पाणिनीय युग तक इसी अर्थ मे उभय गन्दो का प्रयोग होता रहा । यदि शाकटायन और पाणिनीय के वीच के युग मे इन उभय शब्दो की अर्थ मान्यता मे भेद आया होता तो पाणिनीय-अष्टाध्ययी मे उसका उल्लेख अवश्य करते । पाणिनीय के बाद भी भट्टोजीदीक्षित ने "सिद्धात कौमुदी" के मूल सूत्र एव उस को व्याख्या मे उसी अर्थ को स्वीकार किया है। उन्होने कही भी यह सकेत नही दिया कि उक्त उभय शब्दो की अर्थगत मान्यता मे परिवर्तन हुआ है। यदि तव तक अर्थ मान्यता मे परिवर्तन हुआ होता तो वे उस का उल्लेख किए विना नही रहते । परन्तु,उन्होने उभय शब्दो की परिभाषा मे कोई परिवर्तन नहीं किया। इस से यह स्पष्ट प्रमाणित होता है कि सिद्धात कौमुदी की रचना के समय तक आस्तिक-नास्तिक शब्दो का प्रयोग आत्मादि के अस्तित्व को मानने और न मानने के अर्थ मे ही होता रहा है । परन्तु, दार्गनिक युग मे आकर इसकी परिभाषा मे अन्तर डाला गया । आत्मा आदि के अस्तित्व मे विश्वास रखने, न रखने के साथ ईश्वर को जोडा गया। ईश्वर भी उन का अपना एक पारिभाषिक शब्द है। उस का अर्थ है- जो एक है, जगन्नियन्ता है, ससार का निर्माता है, भाग्य का विधाता है, कर्म फल का प्रदाता है, बार-बार ससार मे अवतार लेता है, ससार रूपी घटीयत्र का सचालक है तथा
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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