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________________ प्रश्नो के उत्तर ३४० हो गया है | अतः उसका - कर्म का बन्ध किसी के नही होगा । परन्तु ऐसा होता नही । जो व्यक्ति बुरे या अच्छे जैसे कर्म करता है, उसे वैसा फल भी मिलता है । इससे स्पष्ट है कि वह शुभाशुभ कर्म का बन्ध करता है और उसे तोड़ता भी है । क्योकि जिसका बन्ध होता है, उसका नाश भी किया जा सकता है । और यह वन्ध-मोक्ष की स्थिति एकान्त क्षणिकवाद मे नही घट सकती है । 1 WANN 3 अत, आत्मा को एकात नित्य मानना भी दोषयुक्त है । और एकांत अनित्य मानना भी । इसलिए जैन दर्शन उसे न एकात नित्य मानता है और न एकांत अनित्य ही, वह उसे नित्यानित्य मानता है । आत्म द्रव्य की अपेक्षा से नित्य है । क्योकि शरीर की बदलती हुई स्थितियो एव गतियो मे भी उसका अस्तित्व वना रहता है । उसके अस्तित्व मे, आत्म प्रदेशो मे थोड़ा भी अन्तर नही पडता । परन्तु ज्ञान-दर्शन आदि जो आत्मा के गुण हैं और सदा प्रात्मा के साथ रहते हैं, उनमे प्रतिक्षण परिवर्तन होता है । इसके अतिरिक्त ससारी श्रात्मा के शरीर एव गति मे भी परिवर्तन होता रहता है । इस पर्याप्त परिवर्तन की अपेक्षा से उसमे परिवर्तन भी आता है । इस तरह श्रात्मा न एकांत नित्य है और न एकात अनित्य ही । वह परिणामी नित्य है द्रव्य की अपेक्षा से सदा स्थित रहता है और पर्याय की अपेक्षा से सदा बदलता रहता है ! बौद्धो का यह तर्क भी कोई महत्त्व नहीं रखता कि आत्मा सव से अधिक प्रिय होने के कारण मनुष्य उसकी तृप्ति के लिए अहकार का अत्यधिक पोषण करता है या हिंसा आदि पापो मे प्रवृत्त होता है। यह दोष अनात्मवाद मे ही उपस्थित होता है । क्योकि आत्मवादी -
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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