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________________ ३४१ अष्टम अध्याय इस बात को भली-भाति मानता है कि अहकार एवं हिसा आदि दोष ससार परिभ्रमण के कारण है । इसलिए वह उनसे वचकर रहता है। संसार मे दो दृष्टिएं पाई जाती है-- १-वाह्याभिमुखी और २प्रात्माभिमुखी। जिन प्राणियो को सम्यग्ज्ञान नहीं होता, उनकी दृष्टि बहिर्मुखी होती है। वे पचभूत से बने स्थूल शरीर को ही आत्मा मानने लगते हैं। इसलिए उसे सुरक्षित, स्वस्थ एव चिरकाल तक बनाए रखने के लिए अनेक तरह के पापो का आसेवन करते है और रात-दिन विषय-कषाय मे संलग्न रहते है। इस तरह वे दुःख की अभिवृद्धि करते हैं। परन्तु जिन्हे सम्यग्ज्ञान है, उनकी दृष्टि प्रात्माभिमुखी होती है। वे प्रत्येक कार्य करते समय अपने हित की तरह दूसरे के हित एव सुख का ध्यान रखते हैं। क्योकि वे प्रत्येक प्रात्मा को अपनी आत्मा के समान देखते हैं और यह जानते है कि मुझे दुख अप्रिय है,उसी तरह दुनिया के समस्त जीवो को दु.ख अप्रिय लगता है, सुख प्रिय है और सभी प्राणी जीना चाहते हैं । इसलिए वे अपने स्वार्थ को पूर्ति के लिए दूसरे प्राणियो का यो हो विनाश नहीं करेगा। वह प्रत्येक कार्य विवेक पूर्वक करेगा। हिंसा आदि दोषो से बचने का प्रयत्न करेगा। इस तरह वह पाप कर्म बध एव दु खो से सहज ही बच जाता इससे स्पष्ट हो जाता है कि आत्मा के अस्तित्व को मानने से दुःखो की परम्परा नही बढती, बल्कि आत्मा को स्वीकार नही करने से हो दु.खो की परम्परा मे अभिवृद्धि होती है। प्रात्मा के यथार्थ स्वरूप का परिज्ञाता तो दुःख प्रवाह को ही समाप्त कर देता है। वह जो कुछ करता है, वह शरीर की तुष्टि के लिए नहीं करता, प्रत्युत आत्म
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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