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________________ प्रश्नो के उत्तर ३४२ विकास के लिए करता है और ग्रात्मा को शरीर मे पृथक मान कर करता है । इसलिए वह केवल शरीर पोषण के लिए किये जाने वाले सभी दोपो से निवृत्त होकर साधना के सयम के पथ पर बढता है । और वह अपनी सारी शक्ति ग्रात्मा को कर्म एव कर्म जन्य शरीरं यादि साधनों से सर्वथा मुक्त करने मे लगा देता है । ऋत. वह एक दिन शारीरिक एवं मानसिक सभी दुखो से मुक्त हाकर अनन्त आत्म सुख को प्राप्त कर लेता है । MAAAAA wwwww इस तरह जैन दर्शन ग्रात्मा के अस्तित्व को स्वीकार करता है । श्रौर उसका विश्वास है कि ग्रात्मा के यथार्थ स्वरूप को जानने वाले व्यक्ति को श्रात्मा ही सर्वप्रिय लगती है। इसलिये वह शरीर पोषण से अपना ध्यान हटाकर आत्म विकास मे लगा देता है और आत्म विकास समस्त दोपो से निवृत्त होने पर ही होता है। इस तरह वह सारे दोषो एव तज्जन्य दुखो से सहज ही वच जाता है । जैन दर्शन मे श्रात्मा को स्वतन्त्र पदार्थ माना है । वह इन्द्रिय, मन आदि से अलग स्वतन्त्र द्रव्य है और रूप, वेदना आदि से रहित है | क्योकि रूप आदि पर्यायें भौतिक पदार्थों मे होती हैं । जैन दर्शन मे माने गये छह द्रव्यो मे - १ धर्म, २- अधर्म, ३ - प्राकाश, ४-काल, ५ जीव 1 और ६- पुद्गल, केवल पुद्गल द्रव्य रूप आदि से युक्त है, शेष जड़ एव चेतन द्रव्यों से रूप आदि नही पाये जाते हैं । ससारी जीव मे जो रूप एंव कर्म जन्य वेदना आदि परिलक्षित होती है, इसका कारण यह है कि वह कर्म से संयुक्त है और कर्म पुद्गल हैं, अतः जीव मे रूप, वेदना, सज्ञा आदि की होने वाली अनुभूति कर्म पुद्गल के कारण होती है । अतः ये सब ग्रात्मा नही, प्रत्युत आत्मा के साथ सबद्ध पुद्गल हैं, पर्यायें
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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