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________________ .३४३ अष्टम अध्याय है और इसी कारण उनमे प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है । "इनके 'पुरातन स्वरूप का नाश एव अभिनव स्वरूप की उत्पत्ति होती रहती है इसी कारण आत्मा को भी पर्याय की अपेक्षा से अनित्य भी माना है। अस्तु,इन साकार पुद्गलों के कारण आत्मा को रूपवान नही कहा जा सकता। वह इन से अलग अरूपी है- और पर्यायो के विनाश कारण उसके द्रव्य स्वरूप मे कोई अन्तर नही आता, इसलिए वह एकान्त भनित्य नही, नित्यानित्य है। आत्मा द्रव्य की अपेक्षा से नित्य और पर्याय की अपेक्षा से अनित्य है। वौद्ध दर्शन मे जो आत्मा को रूप आदि से युक्त एव एकान्त क्षणिक माना है, वह कर्म युक्त आत्मा के अदर होने वाली पौद्गलिक हरकतो एव उसकी परिवर्तित होने वाली पार्यो को देखकर ही उसे रूप आदि से युक्त एव क्षणिक कहा है । आत्मा के शुद्ध स्वरूप पर अर्थात् आत्म द्रव्य पर जिसमे त्रिकाल मे कभी भी अतर नहीं आता और जो पौद्गलिक गुणो से सर्वथा रहित है, रूप, रस आदि से युक्त नहीं है. बौद्ध दर्शन की दृष्टि नहीं गई । जन विचारको ने उसके यथार्थ स्वरूप का प्रत्यक्षीकरण करके रखो है और वह अनुभव से सत्य सिद्ध होता है। जैन दर्शन ने किसी भी वस्तु को न एकान्त नित्य कहा है और न एकान्त रूप से अनित्य माना है । क्योकि वस्तु अनन्त गुणो से युक्त है, प्रत. उसके लिए एकात भाषा का प्रयोग ही नहीं किया जा सकता। परन्तु,इससे यह मानना गलत है कि जैनदर्शन सशयशील है।उसे वस्तु के नित्यानित्य,एक-अनेक आदि स्वरूपो मे पूरा विश्वास है और वह निश्चयात्मक रूप से कहता है कि वस्तु नित्य भी है और अनित्य भी है। उसे वस्तु के उभय रूपो मे निश्चय है । परन्तु तथागत बुद्ध जब मात्मा
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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