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प्रश्नो के उत्तर
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भाव सवध भी वीजाकुर की तरह है 17 जैन जिस तरह प्रौदारिक शरीर और कार्मण-सूक्ष्म शरीर को पृथक मानते हैं, उसी तरह साख्य भी लिंग शरीर को स्थूल शरीर से भिन्न मानते है। जैन सूक्ष्म और स्थूल दोनो शरीरो को पीद्गलिक मानते हैं । सांख्यं ने भी दोनों को प्राकृतिक ही माना है । जेनो ने दोनो शरीरो को पुद्गल का विकार माना है, फिर भी दोनो शरीर वर्गणा के पुद्गलो को भिन्न-भिन्न माना है । सांख्य ने भी एक को तन्मात्रिक और दूसरे को माता-पिता से जन्य माना है । जैन मानते हैं कि मृत्यु के समय प्रदारिक ग्रादि स्थूल शरीर नष्ट हो जाता है, परन्तु ससारावस्था मे कार्मण शरीर जीव के साथ सदा रहता है । उसी कार्मण शरीर के माध्यम से ही जीव अपने गन्तव्य स्थान तक पहुचता है । साख्य भी ऐसा ही मानते हैं कि के मृत्यु समय स्थूल शरीर नष्ट हो जाता है, परन्तु लिंग शरीर स्थित रहता है और एक स्थान से दूसरे स्थान मे गति करते समय साथ रहता है । दोनो की मान्यता है कि नए जन्म के समय जीव नए दारिक (स्थूल) शरीर को ग्रहण करता है । दोनो दर्शन इस बात मे एकमत हैं कि मुक्ति के समय कार्मण या लिंग शरीर भी छूट जाता है, मुक्त अवस्था मे सिर्फ विशुद्ध चैतन्य हो रहता है । जैन मानते हैं कि कार्मण शरीर की गति मे कोई प्रतिघात नही होता । सांख्य भी मानते हैं कि लिंग शरीर श्रव्याहत गंति करता है। जैन कार्मण शरीर को उपयोग रहित मानते हैं और साख्य दर्शन भी लिंग शरीर को निरुपयोग मानता है ।
" जवकि साख्य रागादि भावो को लिंग शरीर को और अन्य भौतिक पदार्थो को प्रकृति का विकार मानता है, फिर भी सांख्य इन मे जातिगत भेद स्वीकार करते हैं । जैनों की भी यह मान्यता है कि
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1⁄2 साख्य कारिक ( माठर वृत्ति ) - ५२ ।
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