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________________ प्रश्नो के उत्तर १७८ प्राप्त नहीं होती है । इस कर्म के ५ भेद है- १ दान-पतराय, २ लाभअतराय, ३ भोग-अतराय, ४ उपभोग-अतराय और ५ वीर्य-अंतराय । प्रकतियां का बंघ - - - - ८ कर्म की १२० प्रकृतिया का वध होता है। वह इस प्रकार हैजानवरण की ५, दर्शनावरण की ९, वेदनीय की २, मोहनीय की २६-१ सम्यक्त्व मोहनीय और सम्यक्त्व-मिथ्या मोहनीय-मिश्र मोहनीय प्रकृति का बव नही होता है, बघ तो मिथ्यात्व मोहनीय का होता है, परन्तु परिणामो मे विनुद्धि और अर्धशुद्धि होने पर सम्यक्त्व और मिश्र मोहनीय की दोनो प्रकृतियें वन जाती है, आयु की ४, नाम की ६७, गोत्र की दो और अतराय की ५=१२० प्रकृतिया । उपरोक्त १२० मे मोहनीय कर्म की निकाली गई दो प्रकृतिया मिला देने पर १२२ प्रकृतिया बन जाती हैं । ये १२२ प्रकृतियों उदय और उदीरणा की अधिकारिणी है। ८ कर्म की १५८ उत्तर प्रकृतियां होती हैं। इसमे नाम कर्म की १०३ प्रकृतिये मिलाई गई हैं। इस मे से वधन नाम कर्म के ५भेद लिए जाए तो १५८-१०=१४८ प्रकृतियां गेष रहती हैं। ये १४८ प्रकृतियां सत्ता योग्य हैं अथवा इनको सत्ता रहती है। कर्म बन्ध का कारण जैन आगमो एवं ग्रन्थो में कर्म बन्ध के संवव मे तीन मान्यताए प्रचलित है- एक मान्यता है कपाय और योग ये दो कर्म वध के कारण हैं, दूसरी मान्यता मिथ्यात्व, अवत, कषाय और योग चार को कारण मानती है और तीसरी परपरा उसमें प्रमाद को जोड कर पाच कारण मानती है। दो कारण मानने वालो ने रेप कारणों का कपाय में समावेश कर लिया है। इस तरह कपाय और योग कर्म वन्ध के कारण हैं,
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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