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________________ ३०३ सप्तम अध्याय तथा उनके शरीर श्रादि सभी पदार्थ नष्ट हो जाते हैं, एक भी पदार्थ शेष नही रहने पाता, समस्त जड पदार्थ परमाणु रूप हो जाते हैं । चर, चर जगत का सर्वथा विनाग ही वैदिक धर्म में प्रलय कहा जाता है, और यह प्रलय चार अरब बत्तीस करोड़ वर्ष तक रहती है । किन्तु जैनधर्म इस प्रलय में विश्वास नही रखता । उसका कहना है कि मनुष्य, पशु आदि का वीज नाश न कभी हुआ है, और न कभी होगा। वैदिक धर्म सम्मत प्रलय के सम्वन्व मे अनेको प्रश्न उपस्थित होते हैं । इस प्रलय का कारण क्या है ? इसे कौन लाता है ? यदि इस का कारण ईश्वर को माना जाए तो यह सत्य सिद्ध नही होने पाता । क्योकि निराकार ईश्वर साकार वस्तुग्रो को कैसे विगाड़ सकता है ? शुद्ध, निर्विकार ईश्वर को ऐसा करने की श्रावश्यकता भी क्या है ? क्या जगत की अवस्थिति से उसका कुछ नुक्सान होता है ? या ऐसा कोनसा दवाव या वोझ उसके ऊपर पड़ा हुआ था, जिसके कारण उसे विवश हो कर विश्व का सर्वनाश करना पडता है ? कुछ समझ मे नही आता । जब “ विषवृक्षोऽपि सम्वद्र्यं स्वय छेत्तुमसाम्प्रतम् " $ ऐसा सिद्धात है तो ईश्वर ससार के सहार जैसा दुष्ट कर्म कैसे कर सकता है? एक ओर ईश्वर को निर्विकार तथा पवित्र कहना और दूसरी ओर उस पर ससार के सहार का निर्मूल कलक लगाना, यह कहा की शिष्टता है ? और कितनी विचित्र ईश्वर की उपासना है ? कुछ समय के लिए यदि यह मान लिया जाए कि ससार के सभी पदार्थों का सर्वथा नाग हो जाता है, तो प्रश्न उपस्थित होता है कि ९ यदि विष का वृक्ष भी लगा दिया जाए, उसका सम्वर्धन कर दिया जाए तो उसका सहार नही करना चाहिए । अर्थात् - सरक्षित तथा पालित जीवन का नाश नही करना चाहिए ।
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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