SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम अध्याय ३९ है । अस्तु केवलज्ञान एकान्तवादी और कूटस्थ नित्य नही, प्रत्युत परिणामी नित्य है । इसलिए स्याद्वाद और केवलज्ञान में कोई मौलिक अन्तर- या विरोध नही है । छद्मस्थ और केवली का दोनो ही ज्ञान स्याद्वाद पूर्वक होते हैं और दोनो ज्ञान वस्तु का प्रकान्त दृष्टि से अवलोकन करते है | इतने लम्बे विवेचन के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुचे कि स्थाद्वाद पागलो का प्रलाप या उन्मत्तो को वौखलाहट नही । वस्तु के सही • रूप को जानने का यथार्थ सावन है । दार्शनिक ग्रन्थों मे हम स्पष्ट रूप से देखते है कि एकान्तवाद का आग्रह रख कर चलने वाले दार्गनिको को भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से स्याद्वाद का सहारा लेना ही होता है 1 इस को माने विना वस्तु के पूर्ण रूप को न जाना जा सकता है ओर न दुनिया का व्यवहार ही चल सकता है । हम यह प्रत्यक्ष मे देखते हैं कि हमारे सभी व्यवहार सापेक्ष के प्रावार पर हो चलते है । यदि हम एकान्त को स्वीकार कर ले तो व्यवहारिक जगत मे एक क्षण भी नही टिक सकते, हमारा सारा व्यवहार हो समाप्त हो जायगा । इस ससार की एव संसार मे स्थित पदार्थों तथा व्यवहार की सापेक्षता को देखकर वैज्ञानिको ने भी सापेक्षवाद को स्वीकार किया - है । अत जैनो का सापेक्ष सिद्धात कपोल कल्पित नही, प्रत्युत् वैज्ञानिक आधार पर आधारित है । । राजनैतिक संघर्षो का समाधान -- स्याद्वाद स्याद्वाद दार्शनिक समस्याओं का सही समावान रहा है । जैनाचार्यो ने सभी दर्शनों का, विचारों का समन्वय करके दार्शनिक सघर्षो को समाप्त करने का प्रयत्न भी किया है । परन्तु वर्तमान मे दार्शनिक युग प्राय समाप्त हो गया है । दार्शनिक संघर्ष भी धीरे-धीरे समाप्त
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy