SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 233
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म का अनादित्व चतुर्थ अध्याय प्रश्न- जैन धर्म का उद्भव कब हुआ ? इस के संस्थापक कौन थे?, यह प्राचीन है या- अर्वाचीन है ? यदि प्राचीन है, तो उसका क्या प्रमाण है ? उत्तर- आगमो में बताया गया है कि जैन धर्म अनादि काल से चला पा रहा है। बीते हुए अनन्त-अनन्त काल मे अनन्त तीर्थकर हो चुके हैं, जिन्होंने साधना के द्वारा स्वयं मुक्ति को प्राप्त किया और भव्य प्राणियों को भी निर्वाण का मार्ग वताया। श्री नन्दी सूत्र में कहा गया है कि तोयंकरों द्वारा परूपित द्वादशागी ‘गणिपिटक अनादि-अनन्त है । * * द्वादमागी गणिपिटक की अनादि-अनन्तता सापेक्ष दृष्टि से है । सादिसान्तता और अनादि-अनन्तता के चार भेद किए गए ई-१ द्रव्य, २ क्षेत्र, ३ काल और ४ माव। . . . . द्रव्य से एक पुरुष-अमुक तीर्थकर के शासन में उक्त तीर्थकर द्वारा परूपित होने से गणिपिटक सादि-सान्त है और अनेक पुरुषों-तीर्थकरो द्वारा परुपिन होने के कारण वह अनादि-अनन्त है 1, क्षेत्र से ५ भरत, ५ ऐरावतं की अपेक्षा से गणिपिटक सादि-सान्त है । क्योकि उक्त क्षेत्रों में सदा काल तीर्थकर नहीं होते और ५ महाविदेह क्षेत्र की अपेक्षा से वह बनादि-अनन्त है । वहां सदाकाल तीर्थकर होते है. वहा कभी भी तीर्थंकरों का अंतर नहीं पड़ता है। -
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy