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________________ तृतीय अध्याय R 7 . माना जा सकता है कि प्रात्मा कर्म वन्धनो को तोड कर, सिद्ध-बुद्धमुक्त वन जाती है, . इसका उत्तर यह है कि जैनो ने कर्म और आत्मा का अनादि काल से जो सवध माना है, वह प्रवाह- की दृष्टि से माना है, न कि व्यक्ति की दृष्टि से । यह हम ऊपर बता चुके हैं कि आवद्ध कर्म अपने समय पर उदय मे आते है और फल देकर आत्म प्रदेशो से अलग हो जाते हैं, परन्तु कर्म बघं का प्रवाह चालू होने से उसके स्थान मे दूसरे कर्मो का वध हो जाता है । इस तरह जब तक सैवर के द्वारा आत्मा कर्मो के आगमन को रोक नहीं देता है,तव तक प्रतिसमय पुराने कर्मों की निर्जरा होती है और नए कर्म आते रहते है। इस प्रकार आत्मा सदा कर्मो से त्रावृत ही रहता है, एक समय भी ऐसा नहीं जाता है कि. जिस मे कर्मों का आवागमन नही होता हो । अतः प्रवाह की दृष्टि से कर्म आत्मा के साथ अनादि काल से लगे हुए है। परन्तु व्यक्ति की दृष्टि से प्रत्येक कर्म वध का समय निश्चित है,अत. वह सादि है और सादि होने के कारण उसका नाश भी होता है,या किया जा सकता है । आत्मा पहले सवर के द्वारा नए कर्मो का पागमन रोकती है और फिर निर्जरा के द्वारा पहले वाधे हुए कर्मों का सर्वथा क्षय करके मोक्ष को प्राप्त करती है। इस तरह कर्मो का आत्यन्तिक क्षय करके आत्मा सदा-सर्वदा के लिए कर्म वधन एवं तुज्जन्य साधनो एव फल भोग से सर्वथा मुक्त हो कर निर्वाण पद को प्राप्त कर लेती है और वहा सदा काल शुद्ध आत्म-स्वरूप, मे स्थित रहती है।
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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