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नवम अध्याय
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माधिपत्य जमाना चाहती हो, जीवन मे सर्वत्र भौतिकता का साम्राज्य स्थापित करने की अभिलाषा हो तो जैन दर्शन, को यह स्वीकार नहीं है । वह प्राध्यात्मिक ज्योति से रहित भौतिकता को किसी भी हालत मे पसन्द नहीं करता । वह आध्यात्मिकता मे युक्त भौतिकता का या यों कहिए त्याग निष्ठ भोग का समर्थन करता है। और चार्वाक आध्यात्मिक रहित भौतिकता का या त्याग रहित केवल भोग का समर्थन करता है। प्रत. चार्वाक एव जैन दर्शन मे यही सबसे बड़ा अंतर है।
चार्वाक की मान्यता के सबंध मे एक श्लोक प्रसिद्ध है, उसके प्रथम पद मे कहा है- " यावज्जीवेत सुख जीवेत" अर्थात् जब तक जीवित रहे, सुख-पूर्वक जीवित रहे । इस से जैन दर्शन का कोई विशेष विरोध नहीं है । जैन दर्शन भी यही कहता है कि मानव सुखशान्ति से रहे । वह रोते-तड़पते हुए जोवन के क्षण न विताए। पार्त पौर रौद्र ध्यान मे ही सदा निमग्न न रहे । वह रात-दिन चिन्ता के झूले मे झूलता न रहे । साधक का चाहिए कि वह सुख-दुख मे हमेशा मुस्कराता रहे। दुखो को तपतो दुपहरो मे भी उसका मन सरोज कुम्हलाए नहो । वह हर स्थिति मे सकल्प-विकल्पो से ऊपर उठ कर शांत मन से आत्म-साधना मे संलग्न रहे। हा तो, जहा तक पहले चरण का सबध है, जैन दर्शन का कोई विरोध नही है। वह भी मनुष्य को सुख-शाति एत्र आनन्द पूर्वक जोने को प्रेरणा देता है। परन्तु गेष तीन पदो के साथ जनदर्शन सहमत नहीं है !
उनमे कहा गया है कि "...ऋण कृत्वा घृतं पिवेत् । भस्मी-भूतस्य देहिनः, पुनरागमण कुतः।" उक्त दूसरे पद की भाषा किसी सभ्य एव इमानदार व्यक्ति की भापा प्रतीत नही होती । क्योकि सुख-पूर्वक जोने का यह अर्थ नही है कि चाहे जैसे अनैतिक साधनो से भौतिक