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________________ प्रथम अध्याय तव वह सत्य का अनुसधानकर्ता न रहकर संघर्ष का कारण है और उस स्थिति में उसे जैन परिभाषा मे दुर्नय कहा है । अस्तु, एकान्तवाद असत्य है, वस्तु का निर्णय करने में असमर्थ है और संघर्ष का कारण है । इसलिए भगवान महावीर को एकान्तवाद स्वीकार नहीं है । वे वस्तु को सापेक्ष दृष्टि से देखते है। " स्याद्वाद और सप्तभंगी . . हम इस बात को स्पष्ट कर चुके हैं कि वस्तु मे स्थित अनेक धर्मो का सापेक्ष दृष्टि से विवेचन करने का नाम-स्याद्वाद है । स्याद्वाद मे किसी भी विचार या मत का तिरस्कार नही किया जाता अपितु अपेक्षा से वस्तु के स्वरूप का अवलोकन किया जाता है । उदाहरण के तौर पर जब हम यह विचार करते हैं कि वस्तु सत्-है, उस समय उसका दूसरा पहलू असत् भी हमारे सामने आ जाता है। हम उसका एक दम तिरस्कार नही कर सकते । क्योकि असत् भी वस्तु मे मौजूद है । यदि हम एकान्तत सत् या असत् को ही स्वीकार करते है और उसके दूसरे पक्ष को नही स्वीकार करते हैं तो वस्तु के वास्तविक स्वरूप को प्रत्यक्ष कर ही नहीं सकते। यदि वस्तु एकान्त सत् . रूप है तो फिर पदार्थों मे स्थित वैचित्र्य एव पृथक्त्व घटित ही नही होगा। उदाहरण के तौर पर घट-पट का पृथक् अस्तित्व ही नही रह जाएगा। क्योकि घट भो सत् है और पट भो सत् है । अत घट, पट बन जायगा या पट,घट बन जायगा । इस तरह.दुनिया के सभी पदार्थ एक ही स्वरूप को प्राप्त हो जाएंगे..परन्तु ऐसा होता नहीं है। सब पदार्थो का अपनाअपना स्वतत्र अस्तित्व है। इस से यह स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि वस्तु सत् भी है और असत् भो । घट घट रूप से सत् है, तो पट रूप से असत् भी है । पट पट रूप से सत् और घट रूप से असत् है,इस तरह वह सद
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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