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________________ ९.ru द्वितीय अध्याय पुद्गल-जीव उन की दृष्टि से नित्य नही है, परन्तु उसकी सन्तति अनादि काल से चली आ रही है और आगे भी प्रवहमान रहेगी । इस तरह द्रव्य रूप से नित्यता तो नहीं, परन्तु सन्तति नित्यता तो वोद्धो को भी अभीष्ट है , मान्य है। कार्य-कारण की परपराको सतति कहते है । यह परपरा कभी विशृ खिलित नहीं हुई और भविष्य में भी नहीं होने वाली है । कुछ बौद्ध चिन्तको की दृष्टि में निर्वाण - मुक्ति के समय यह परपरा समाप्त हो जाती है, परन्तु कुछ विचारको का मानना है कि निर्वाण दशा में भी विशुद्ध चित्त की परपरा विद्यमान रहती है । इस अपेक्षा से ऐसा लगता है कि सतति नित्यता बौद्धो को भी मान्य है। वेदान्त का परिणामी नित्यवाद __ वेदान्त में ब्रह्म को एकान्त नित्य माना है । जीव के संबंध मे व्याख्याकारो मे कुछ विचार भेद है । आचार्य शकर ब्रह्म को सत्य और जीवात्मा को मिथ्या, माया मानते हैं। वह मायिक होते हुए भी आनदि कालीन अज्ञान के कारण अतादि तो है , परन्तु नित्य नहीं है। क्योकि अज्ञान का नाश होते ही वह जीवात्मा ब्रह्म रूप मे.लोन हो जाता है और उसके जीव भाव का नाश हो जाता है ! इससे ऐसा लगता है कि मायिक जीव ब्रह्म रूप से नित्य है और माया रूप से अनित्य है। प्राचार्य शकर के अतिरिक्त वेदान्त के सभी व्याख्याकार जीवात्मा को ब्रह्म का परिणाम मानते हैं । इस दृष्टि से भी जीवात्मा को परिणामी नित्य मानना चाहिए। जैन और मीमासक
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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