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प्रश्नों के उत्तर
anavarnarm
जव नष्ट कर दिए जाते है, और सयम के द्वारा जव नवीन कर्मबन्ध को रोक दिया जाता है तव यह अात्मा सुवर्ण के समान परम विशुद्ध और निविकार हो कर अविनाशी और अनन्त सुख को प्राप्त कर लेता है। जिस प्रकार चावल का छिलका उतर जाने पर उस मै उगने की शक्ति नही रहती, ऐसे ही कर्म-विमुक्त आत्मा भी जन्म-मरण की परम्परा से छूट जाता है । जन्म-मरण कर्मजन्य हैं । कर्म को राग-द्वेष जन्म देता है। राग-द्वेष के अभाव मे कभी कर्मवन्धन नही हो सकता। कर्म-बधन । के नष्ट हो जाने पर जन्म-मरण नही होने पाता । इस कारण कर्ममल के सर्वथा समाप्त हो जाने पर निष्कर्म अवस्था को प्राप्त हुआ जीव फिर कभी कर्म-वन्धन मे नही पाता, वह जन्म-मरण से छूट जाता है, सदा के लिए मुक्ति मे जा विराजता है।
मुक्त दशा मे जीव गरीर-रहित होता है, अतः वह न तो स्वय दूसरे को रुकावट डालता है और न किसी दूसरे से रुकता है । तुम्बा जैसे पानी के ऊपर ही तैरता रहता है, वसे ही मुक्त जीव स्वभाव से ही ऊपर लोकाग्र भाग मे पहुच जाता है । उस स्थान का नाम सिद्धशिला या सिद्धस्थान है। सिद्धशिला मे गया जीव सदा के लिए वही रहता है, वहा से कभी वापिस नही पाना। वापिस आए भो कसे ? वापिस पाएगा ता उसे जन्म लेना पडेगा, जन्म लेगा ता नव मासअवर कोठडी मे उसे उल्टा लटकना पडेगा, उल्टा लटकने में शास्त्र कहता है कि मारणान्ति : वेदना होती है। वेदना विना कर्म के हो नहीं सकती। मुक्त जोब कर्म से सर्वथा रिक्त होता है। ऐसी दगा मे (निष्कर्मता की दशा मे) मुक्त जीव की उत्पत्ति कैसे मानी जा सकती
यह कहना कि "लगातार मिठाई खाने से मनुष्य
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