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________________ a..................तृतीय अध्याय यह तो नही कह सकते कि वैदिक ऋषियो को मनुष्य-मनुष्य मे तथा मनुष्य एव अन्य पशु-पक्षियो मे रहा हुआ अन्तर दिखाई ही न दिया हो । विभिन्न जीवो मे रहे हुए वैचित्र्य को उन्होंने देखा अवश्य होगा, परन्तु इसके कारण को अन्तर आत्मा मे गोधने के बदले उन्होने वाहर मे ही शोधा हो और किसी भौतिक शक्ति या प्रजापति जैसे तत्त्व को मानकर सन्तोष किया हो ऐसा लगता है और इसी कारण उनकी दृष्टि कर्मवाद का प्रत्यक्षीकरण नही कर सकी हो। वेद युग से लेकर ब्राह्मण काल तक का सारा तत्त्वज्ञान वाह्य साधनो को वटोरने एव भौतिक शक्तियो को प्राप्त करने का साधन रहा है । और उक्त साधनो की प्राप्ति के लिए वे देवो एवं प्रजापति की स्तुति करने तथा उन्हे प्रसन्न करने के लिए यज्ञ करने मे ही व्यस्त दिखाई देते है। अस्तु यह निसदेह कहा जा सकता है कि वैदिक युग मे आध्यात्मिक चिन्तन का उदय (प्रारभ) नही हो पाया था। ब्राह्मण काल के बाद उपनिषदो का युग प्रारभ होता है। उपनिपद् वेद-ब्राह्मण ग्रन्थो का अतिम भाग होने से इन्हे भी वैदिक ही समझना चाहिए। वेदो मे तो कर्म पर कही विचार नहीं किया गया, परन्तु उपनिषदो मे अदृष्ट कर्म को माना गया है । वेदो के समय जो देवो एव प्रजापति को महत्त्व मिला था, उपनिषद् युग मे उसका स्थान यज्ञ ने ले लिया था। उपनिपदो के अनुसार कर्म का फल देने की शक्ति यज्ञ मे मौजूद है । इस तरह वैदिक परपरा मे कर्म पर चिन्तन पहले पहल उपनिषदो मे मिलता है। दार्शनिक एव ऐतिहासिक विद्वानो की यह मान्यता है कि वैदिक परपरा मे उपनिषदो से पहले कर्म पर विचार नही किया गया था । इस पर यह प्रश्न सहज ही उठता है कि उपनिपदो मे यह परपरा कहा से आई? कुछ विद्वानो का कहना है कि वैदिको ने यह सिद्धात भारत के
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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