SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय व्याय सत्योपाधिवाद भास्कराचार्य ने आचार्य शकर से विपरीत दिशा मे सोचा है । भास्कराचार्य भी एक ब्रह्म को मानते है, परन्तु प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले अनेक जीवो को प्राचार्य शंकर की तरह मिथ्या नही मानते । श्राचार्य भास्कर की मान्यता है कि निरुपाधिक ब्रह्म अनादि कालीन सत्य उपाधि के कारण अनेक जीव रूप में प्रकट होता है । नित्य, शुद्ध, मुक्त और कटस्य ब्रह्म जिस कारण से अनेक जोवो के रूप में अवतरित होता है, उसे उपाधि कहते हैं । उस उपाधि के कारण से ब्रह्म ग्रनेक जीवो के रूप में दिखाई देता है, इस से उन्हे श्रीपाविक रूप से जीव समझना चाहिए । अर्थात् जब वे निरूपाधिक हो तब उन्हे ब्रह्म और सोपाधिक हो तब जीव कहना मानना चाहिए। प्राचार्य भास्कर इस उपाधि को सत्य मानते हैं, इस कारण उनके मत को भी 'सत्योपाधिक' कहते हैं । ८१ 3 WWWWW विशिष्टाद्वैतवाद प्राचार्य रामानुज के विचार से ब्रह्म-कारण और कार्य दोनों है । सूक्ष्म चिद् और ग्रचिद् की दृष्टि से विशिष्ट ब्रह्म कारण र स्थूल चिद् और अचिद् की अपेक्षा से वह कार्य है । दोनो विशिष्टो को एक्य मानने के कारण रामानुज के मत को विशिष्टाद्वैतवाद कहते हैं । क्योकि ब्रह्म के सूक्ष्म चिद् के विभिन्न स्थूल परिणाम स्वरूप अनेक जीव हैं और उस का सूक्ष्म चिद्रूप स्थूल जगत के रूप में प्रकट होता है । जीव अनेक हैं, नित्य हैं, अणुपरिमाण हैं और जीव एत्र जगन ब्रह्म का ही कार्य होने से मिथ्या नही, सत्य है । मुक्त अवस्था में जीव ब्रह्म रूप बन कर उसके सान्निध्य मे रहता है । जीव और ब्रह्म दोनो कार्य-कारण रूप से भिन्न होते हुए भी एक हैं। क्योंकि कार्य कारण का ही परिणाम
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy