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________________ द्वितीय अध्याय अनुसार आत्मा मे कर्तृत्व एव भोक्तृत्व घटाने का प्रयत्न किया है। एक वात मे हम सभी आस्तिक विचार को को एकमत पाते है । वह यह कि सभी विचारक शुद्ध आत्मा अर्थात् निर्वाण अवस्था मे आत्मा को कर्म का कर्ता एवं भोक्ता नही मानते है । इस से स्पष्ट परिलक्षित होता है कि सव दर्शनो का मूल उद्देश्य आत्मा को शुद्ध बनाने का रहा है। , जैन दर्शन का इस सवध मे अपना मौलिक चिन्तन है। यहा अधिक विस्तार मे न जाकर , इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि जहां अन्य दार्गनिक अपने-अपने पक्ष के सर्मथन एव दूसरे पक्ष का खण्डन तथा विरोध करने मे अपनी सारी गक्ति लगा रहे थे, वहा जैन विचारक समन्वय की भावना लेकर सामने आए। उन्होने अपने पक्ष को, अपने विचारो को सप्रमाण रखा और दूसरे पक्ष की कमजोरियो को भी दिखाने का प्रयास किया, परन्तु किसी विचार की उपेक्षा नही की। उन्होंने प्रत्येक पदार्थ को अनेक दृष्टि विन्दु से सोचा - विचारा और दार्गनिको मे चले रहे विवाद को दूर करने का प्रयत्न किया। जैनो ने स्पष्ट शब्दो मे कहा कि आत्मा को नित्य या अनित्य मानना अपेक्षा से सत्य है । जव तक इस मान्यता के साथ अपेक्षा लगी है, तव तक वह मान्यता सत्य है । क्योकि वह भी एक दृष्टि है, जिसे जैन परिभाषा मे नय कहते हैं । इसमे विचारक अपने विचारो की पुष्टि करता है, परन्तु साथ मे दूसरे के दृष्टि बिन्दु की सर्वथा उपेक्षा नही करता । उसे अपना मन्तव्य रखने का अधिकार है, परन्तु दूसरे पक्ष को एकान्त मिथ्या कहकर उसका तिरस्कार करना भी उचित नही है। जहा अपना मण्डन और दूसरे विचार की सर्वथा उपेक्षा या तिरस्कार किया जाता है, वहा दृष्टि मे विकार आ जाता है, इसलिए उसे नय नही कहकर नयाभास कहा है । अस्तु जब दार्शनिको की दृष्टि
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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