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________________ प्रश्नो के उत्तर १०४ एकागी बन गई, तव ही सघर्ष प्रारंभ हए । अन्यथा सघर्ष जैसी कोई वात नही थी । विचारभेद से एक दूसरे में काफी अन्तर होने पर भी सभी भारतीय दर्शन प्रापस मे मेल भी खाते हैं, वे एक दूसरे के सर्वथा विरोधी नहीं हैं। भक्त कवि आनन्दवन जी ने भी कहा है " पड् दर्शन जिन अंग भणीजे, न्यास पढंग जो माधे रे नमी जिणंद का चरण उपासक, पड़ दर्शन जो अराधे रे ।।" अस्तु जैनो का यह अाग्रह रहा है कि किसी भी वस्तु को एकान्त दृष्टि से नहीं, अनेकान्त दृष्टि से देखना चाहिए। आत्मा के सबंध मे भी उनका यही दृष्टि विन्दु रहा हैं कि वह न एकान्त नित्य है और न एकान्त रूप से अंनित्य । वह द्रव्य को दृष्टि से नित्य भी है और पर्याय की दृष्टि से अनित्य भी है । इस अपेक्षावाद को मान लेने पर सारे संघर्ष समाप्त हो जाते हैं। और वैज्ञानिक दृष्टि भी यही कहती है कि प्रत्येक वस्तु को अपेक्षा से समझना चाहिए, क्योकि दुनिया मे सभी पदार्थ सापेक्ष हैं। इतनी विस्तृत विचार चर्चा के बाद हम यह स्पष्ट रूप से देख चुके हैं कि प्रात्मा गरीर से भिन्न है, असंख्यात प्रदेशी है और व्यक्तिग. अनन्त है। जैनागमो मे जोवो की गति एव जाति (एकेन्द्रियादि) की दृष्टि से विभाजन करते हुए लिखा है जीव के मूल भेद दो हैं- १ सिद्ध और २ ससारी * । जो जीव कर्म वन्वन से पाबद्ध है, जन्म, जरा और मृत्यु के प्रवाह मे प्रवहमान है, एक गति से दूसरी गति मे परिभ्रमण करते हैं, वे संसारी जीव है और जो इनसे मुक्त-उन्मुक्त हो चुके हैं, कर्म एव कर्म जन्य शरीर आदि आवरणो को हटा चुके हैं, वे सिद्ध हैं। सिद्ध भगवान् के सिर्फ * उत्तराध्ययन मूत्र, ३६,४९ । wwww
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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