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________________ ww प्रश्नों के उत्तर १०२ प्राप्त करता है । और कर्म के ससर्ग से वह अनेक दुःख एव वेदना को वेदता है । कृत कर्म को भोगे विना मुक्ति नही हो सकती। कर्म, करने वाले (कर्ता) का अनुगमन करता है । आत्मा ही कर्म का कर्ता है और वहो उसका नाश करने वाला है। इस तरह अनेक वाक्यों से प्रात्मा को कर्म का कर्ता और भोक्ता सिद्ध किया है। जिस तरह उपनिषद् मे जीवात्मा को कर्म का कर्ता और भोक्ता कहने पर भी परमात्मा को उससे रहित माना है। उसी तरह आचार्य कुन्दकुन्द ने भी जीव को व्यवहार दृष्टि से कर्ता और भोक्ता माना है, निश्चय दृष्टि से नही अर्यात् हम यो कह सकते हैं कि ससारी जीव कर्ता और भोक्ता है, परन्तु सिद्ध जीव कर्म के कर्तृत्व और फल के भोक्तृत्व से रहित है। क्योकि वहां कर्म वन्ध का कारण कपाय और योग नही है, इसलिए वहा कर्तृत्व-भोक्तृत्व का अभाव है। ___ इस तरह हमने देखा कि अनेक विचारक आत्मा को अनेक तरह से मानते हैं। कुछ विचारक आत्मा को एकान्त भौतिक मानते हैं और कुछ अभौतिक । अभौतिक मानने वाले विचारको मे भी आत्मा के स्वरूप को मानने मे एक रूपता नहीं है। कुछ विचारक आत्मा को एकान्त नित्य मानते हैं, कुछ एकान्त अनित्य मानते हैं, तो कुछ उसे परिणामी नित्य या नित्यानित्य मानते हैं। जिस को चर्चा हम ऊपर बहुत विस्तार से कर चुके हैं । सत्र विचारका ने अपनी-अपनी मान्यता के . ६ उत्तरा०३,३३,६। । . , कडाण कमाण न मोक्ख अत्यि । -उत्तरा० १३,१० । ६ उतरा० १३,२३ । उत्तरा० २०,३७ । * समयमार, ९३-९८ .
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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