SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम अध्याय विभज्यवाद और अनेकाननवाद - तथागत बुद्ध ने भी अनेकान्त का सहारा लिया है । मज्झिमनिकाय में माणवक के -गृहस्थ आराधक होता है या नहीं? इस प्रश्न का उत्तर एकान्त हा या न के स्वर में न देकर इस प्रकार दिया है कि गृहस्थ भी यदि मिथ्यावादी है तो वह निर्वाणमार्ग का आराधक नही हो सकता और श्रमण भी यदि मिथ्यावादी है तो वह भी उस मार्ग की अराधना - साधना नही कर सकता। उभय साधक यदि सम्यक् प्रतिपत्तिसम्पन्न है तो दोनो आराधक हो सकते हैं। यहां बुद्ध ने अपने आप को विभज्यवादी कहा है । किसो प्रश्न का उत्तर इस प्रकार देना कि यह ऐसा ही है या ऐसा नहीं है, एकागवाद है और बुद्ध को यह एकांगवाद इष्ट नहीं है । अत. उस ने माणवक के प्रश्न का उत्तर विभाजनपूर्वक दिया है। भगवान् महावीर ने भी इस शब्द का प्रयोग किया है । श्रमणनिर्ग्रन्य को कैसी भाषा बोलनी चाहिए; इसका उत्तर देते हुए कहा है कि श्रमण विभज्यवाद की भाषा बोले । इस का अर्थ स्याद्वाद या अनेकान्तवाद किया है। इसे स्याद्वाद, अपेक्षावाद, अनेकान्तवाद और विभज्यवाद भी कहते है। सब का तात्पर्य यही है कि वस्तु सापेक्ष है, अतः प्रत्येक वस्तु को अपेक्षा से समझना चाहिए। तथागत बुद्ध ने भी विभज्यवाद का उल्लेख किया है और भगवान् महावीर ने भी उसका उपदेश दिया है, फिर दोनो में अन्तर क्या रहा, यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है? यह सत्य है कि तथागत बुद्ध ने कई प्रश्नों का उत्तर विभज्यवाद की भाषा मे दिया है, परन्तु उन के __ "भिक्खू विभज्जवायं च वियागरेज्जा" - : : - __... - सूत्रकृताग-सूत्र, १, १४,२२.
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy