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________________ प्रश्नो के उत्तर - ..........२४२ ईश्वर कर्तृत्व आदि असगत मान्यताओं पर जैन दर्शन का कतई विस्वाय नहीं है। जैन दर्शन धर्म के नाम पर की जाने वाली निरपराध मूक प्राणियो की हिंसा का कभी भी समर्थन नहीं करता, प्रत्युत दृढ़ता के साथ उसका विरोध करता है । यह वैदिक दार्शनिको को असह्य था, इसलिए उन्होंने जैनों को नास्तिक प्रमाणित करने के लिए आस्तिक-नास्तिक गब्दो की व्याकरण सम्मत परिभापा को आमूलचूल बदल करके रख दिया है। तव-वेदो को जो अपौरुषेय मानता है, उसे पूणरूप से प्रमाणिक स्वीकार करता है, वह आस्तिक होता है और जो वेदो पर आस्था नहीं रखता, उन्हे प्रामाणिक रूप से स्वीकार नही करता, वह नास्तिक कहलाता है। इस प्रकार को सकीर्ण और द्वेपपूर्ण परिभाषा चालू की गई। बदिक परम्परा में पलने वाले कई दर्शन वेद एव ईश्वर के अस्तित्व को नहीं मानते हैं। साख्य दर्शन ब्रह्म को नही मानता है और न अद्वैतवाद अर्थात् एकेश्वरवाद को ही मानता है। न्ययायिक-वैगेपिक भी द्वैतवाद के समर्थक हैं, उन्हे भी वेदांत का एकेश्वरवाद स्वीकार नही है। और शैव दर्शन-अद्वैतवाद को तो मानता है, परन्तु वेद को प्रमाण नही मानता है । इतने पर भी उक्त दर्शनो को आस्तिक दर्शन माना गया है। इससे स्पष्ट परिलक्षित होता है कि उनका जैन दर्शन पर ही द्वेप था । इसलिए "वेद को प्रामाणिक न मानने वाला नास्तिक है" इस परिभाषा का प्रयोग जैन और बौद्ध दर्शन के लिए ही किया गया। और यही कारण है कि वेदको प्रमाण रूप से नही मानने वाले, एकेश्वरवाद एवं यानिक हिसा को नही स्वीकार करने वाले जैनेतर (वैदिक) दर्शनो को नास्तिक नहीं कहा गया। यह वैदिक विचारको के साप्रदायिक अभिनिवेश का ज्वलन्त प्रमाण है। J
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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