________________
१३९...
द्वितीय अध्याय
भेद यह तो हम पहले ही बता चुके हैं कि स्कन्ध एव अणु का निर्माण भेद से भी होता है। वह भेद ६ प्रकार का है-१ उत्कर, २ चूर्ण, ३ खण्ड, ४ चूर्णिका, ५ प्रतर और ६ अणुचटन । काप्टादि के चीरने से जो पुद्गलो का विभक्तिकरण होता है, उसे उत्कर कहते है । गेहू, चना, वाजरा आदि को चक्की मे पीसने पर जो स्वरूप होता है, उसे चूर्ण कहते हैं । घट आदि के टुकडे होना खण्ड कहलाता है । चने, मूंग, चावल,जव आदि के छिलको को अलग करना चूर्णिका है । अभ्रपटलादि को अलग करने का नाम प्रतर है और तप्त लोहे को धन से पीटने पर उसमे से स्फुलिंग का उछलना अणुचटन कहलाता है।
तम नैयायिक अधकार को स्वतत्र द्रव्य न मान कर प्रकाश का अभाव मात्र मानते हैं । परन्तु जैन दर्शन इस बात को नही मानता, वह अधेरे को अभाव न मान कर प्रकाग की तरह भावात्मक पदार्थ मानता है। क्योकि पुद्गल सदा रूप आदि से यक्त होता है और अधेरे मे रूप आदि का सद्भाव है । जैसे प्रकाश मे भास्वर-उज्ज्वल रूप और उष्ण स्पर्श लोक प्रसिद्ध है,उसी तरह अधेरे में भी अभास्वरकृष्ण रूप और शीत स्पर्श की स्पष्ट प्रतीती होती है । अत अन्धकार प्रकाश का अभाव नही, परन्तु भावात्मक पदार्थ है और परमाणुगो का स्कन्ध है।
छाया, पातप और उद्योत प्रकाश पर आवरण का आ जाना छाया है। सूर्य, अग्नि आदि का उष्ण प्रकाश आतप और चन्द्र, मणि एवं खद्योत आदि का शीतल प्रकाश उद्योत कहलाता है।