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द्वितीय अध्याय
विचारकों का मानना था कि ग्रात्मा चावल या जव के दाने जितना वडा है * | कुछ का कहना था कि वह गुष्ट परिमाण है । । कुछ की दृष्टि मे यह आया कि वह बेंत जितना वडा है। कुछ चिन्तक उसे मणु से भी श्रणु मानने लगे । और आखिर मे जब यह माना जाने लगा कि आत्मा अवर्णनीय है, तब ऋषियों ने उसे "अणोरणीयान महतोमहीयान" कह कर सन्तोष माना ।
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जैनों ने संसार में स्थित ग्रात्मा को देह परिमाण मानने के साथसाथ उसे व्यापक भी माना है । यो तो ग्रात्मा देह परिमाण ही है, परन्तु केवलज्ञान की अपेक्षा से उसे व्यापक माना है । जिस समय केवली समुद्घात करता है उस समय वह अपने आत्म प्रदेशों को सम्पूर्ण लोकाकाश मे फैला देता है । अस्तु इस दृष्टि से ग्रात्मा भी व्यापक है, अन्यथा आत्मा देहं परिमाणं ही है ।
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जीव की सर्व व्यापक न मानकर देह व्यापक मानने का कारण यह है कि उसके गुण शरीर मे ही प्रत्यक्ष देखे जाते है । जिस प्रकार घट के गुण घट से बाहर न होने से वह सर्व व्यापी नही माना जाता, उसी तरह ' आत्मा के गुण भी गॅरीर से बाहर परिलक्षित नही होते हैं, इस कारण वह देह से बाहर नही मानी जा सकता। क्योकि जहा जिस वस्तु की अनुपलब्धि होती है, वहां वह पदार्थ नही माना जाता है । जैसे पट को घट रूपं नही माना जा सकता, क्योकि वहा घटत्व की अनुपलब्धि है ।
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वृहदा ० ५, ६, १ । Î कठो० २,२, १२ ।
+ छान्दो० ५, १८ !
§ मैत्री उपनिषद् ६, ३८ ।
$ कठो० १, २२० ।