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________________ प्रश्नो के उत्तर ९२ इसी प्रकार देह के बाहर ग्रात्मा नही पाई जाती, क्योकि वहा ग्रात्मत्व की अनुपलब्धि है । किसी भी प्रमाण से ग्रात्मा के गुण देह के बाहर दिखाई नही देते, इसलिए उसे सर्व व्यापक मानना उपयुक्त नहीं है। इस के अतिरिक्त जीव का कर्तृत्व, भोक्तृत्व, बन्ध, मोक्ष, सुख, दुख यादि सत्र उसमे तभी घटित हो सकते हैं, जबकि उसे सर्वगत - देहव्यापी और अनेक माना जाए। आत्मा ग्रणु या चावल या जव के दाने या अगुप्ठ या वेत परिमाण भी नही है । यदि ग्रात्मा ऋणु रूप है, तो वह सारे शरीर मे नही रहकर शरीर के किसी एक खास विभाग मे रहेगा । इस से वह शरीर के किसी भी भाग में होने वाली सुख-दुखानुभूति को नही वेद सकेगा । क्योकि यह हम प्रत्यक्ष मे देखते हैं कि शरीर के किसी ग्रग में लक्वा आदि बीमारी होने से चेतना विलुप्त हो जाती है, तो उस आग मे ठडे या गर्म किसी भी तरह के स्पर्ग की या सुई चुभाने पर उस की वेदना की नुभूति नही होती है । उसी तरह यदि ग्रात्मा श्रणुरूप है तो वह शरीर के जिस भाग में है, उसे छोडकर ग्रन्य भाग में किसी तरह के स्पर्ग आदि की अनुभूति नही होनी चाहिए | परन्तु गरीर के हर भाग में स्पर्ग आदि की अनुभूति होती है । इस से स्पष्ट है कि श्रात्मा ऋणु रूप नही, वल्कि शरीर परिमाण है, शरीर के चप्पे-चप्पे में व्याप्त है । चावल,जव,अगुष्ठ या वेंत परिमाण माना जाए तो मनुष्य श्रादि कई बड़े शरीरवारी प्राणियो के पूरे शरीर में व्याप्त न होकर उसके एक भाग में ही प्राप्त होगी । इससे उसमे उपरोक्त दोष श्रायगा । और सूक्ष्म - छोटे जीवो के शरीर मे समा नही सकने से वह शरीर के वाहर रहेगी और यह अनुभव से विरुद्ध है । क्योकि ग्रात्मा के गुण शरीर के विशेषावश्यक भाष्य, १५८५-१५८७ । www 1
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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