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________________ AMAVAN प्रस्नो के उत्तर ७२.. उन्हे प्रजा का स्वय-प्रकाशक रूप ध्यान में न पाए, यह स्वाभाविक जैनो ने प्राण और प्रजा को नित्र माना है । प्राण परमाणु के समूह से दना स्कय है और प्रना चा जान यात्मा का गुण है। प्राणो की मस्या बदल भी सकती है, कभी कम - ज्यदा भी हो सकता है और कभी उसका अभाव भी हो सकता है (निन्द्ध अवस्था में) परन्तु जान आत्मा में सदा काल बना रहता है, उम का प्रभाव कभी नहीं होता । अत. प्राण एव प्रना एक नही, भिन्न तत्त्व हैं। प्रज्ञा का काम जानना है। इसलिए वह स्वय प्रकागक है । जो जान स्वयं को नही जानता वह पर को भी नहीं जान सकना । जैसे दीपक दूसरे पदार्थों को प्रकाशित करता है, उसी तरह अपने को भी प्रकागित करता है। जैसे दीपक या सूर्य को देखने के लिए दूसरे दीपक या सूर्य को लाने की आवश्यकता नहीं होती है। इसी तरह स्वय को जानने के लिए दूसरे के जान को भी आवश्यकता नहीं है। उस का अपना जान स्वयं को भी देखता-जानता है और पर को भी। जो ज्ञान पर को जान सकता है पर स्वय को नहीं जानता, वह ज्ञान नहीं हो सकता। क्योकि जो पर को जानेगा वह स्वयं को भी देखेगा ही अर्थात् यो भी कहा जा सकता है कि स्वय को जाने विना पर का ज्ञान नही होता। - इतना होते हुए भी अन्वेषण चलता रहा और जब आत्मा के शुद्ध चैतन्य एवं आनन्द रूप तक पहुंचे तो कहा गया कि आत्मा- अन्नमय प्रात्मा अर्थात् जिसे शरीर कहते है,उससे पृथक है। शरीर रथ है और उस रथ को चलाने वाला रथी रथ से भिन्न है। उसी तरह इस शरीर का संचालक ही प्रात्मा है । आत्मा और शरीर दोनो पृथक हैं। आत्मा के अभाव मे इन्द्रिए एवं प्राण कुछ नहीं कर सकते। इसलिए आत्मा
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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