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________________ प्रश्नों के उत्तर . १७२ भेदोपभेदो का व्यवस्थित वर्णन जैसा जैन प्रांगमो एवं कर्म ग्रन्थो में .. मिलता है, वैसा अन्य दर्शनो मे उपलब्ध नहीं होता है। - कर्म की मूल और उत्तर प्रकृतियां , जैन आगमो एव ग्रन्यो मे कर्म की मूल आठ प्रकृनिए मानी है१ जानावरण, २ दर्शनावरण, ३ वेदनीय, ४ मोहनीय, ५ अायु ६ नाम ७ गोत्र और ८ अन्तराय। उक्त पाठ कर्मो की अनेक उत्तर प्रकृतिए हैं और विभिन्न जीवो की अपेक्षा से आगमों में कर्म का निरुपण किया गया है । और किस गति या दृष्टि के जीवो मे कितने कर्म-बन्ध,उदय, उदीरणा, सत्ता इत्यादि मे रहते हैं, इसका भी विस्तृत विवेचन किया गया है। इन सवका यहा विस्तार से विवेचन न करके केवल कर्म की उत्तर प्रकृतिए गिना देते हैं। . . . १ ज्ञानावरणीय कर्म । यह कर्म ज्ञान को ढकने वाला है । इस कर्म के उदय से आत्मा स्व और पर स्वरूप को ठीक-ठीक नही जान पाता है । इस आवरण को पट्टी के समान माना है । आख पर जितने मोटे वस्त्र की पट्टी बधी हुई होगी,उतना ही कम दिखाई देगा। उसी तरह नानावरण का जितना गहरा आवरण होगा, आत्मा में उतना ही ज्ञान का विकास कम होगा। यह कर्म आत्मा मे स्थित ज्ञान को पूर्ण रूप से प्रच्छन्न नहीं करता है । आत्मा मे थोड़ा बहुत ज्ञान तो हर स्थिति में रहता ही है। क्योकि ज्ञान आत्मा का लक्षण है, अत. उसका सर्वथा लोप नही होता। जैनागमो मे ज्ञान ५ प्रकार का माना गया है- १ मतिज्ञान, २ श्रुतज्ञान, ३ अवधिनान, ४ मन.पर्यवज्ञान और ५ केवलजान । अत. ज्ञानावरण कर्म भी उक्त ५ प्रकार है; यथा मतिज्ञानावरण आदि । 1 .
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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