SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 171
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -- Mw प्रश्नो के उत्तर wwwwwwww १४८. * www पाप तच्च पाप का लक्षण पुण्य से विपरीत है । तत्त्वार्थ सूत्र मे कहा है"अशुभ. पापस्य " अर्थात् पाप का फल अशुभ होता है । जीवन यात्रा मे जो कटुक क्षण गुजरते हैं, जो मुसीवतो के पहाड़ मानव पर गिरते हैं या जो दुखो वेदनाओ की बिजलिया कडकती हैं, वह सब पाप का परिणाम ही है । नरक और तिर्यश्व गति की यात्रा भी मानव पाप के यान मे बैठ कर ही करता है । नरक, तिर्यश्व, मनुष्य और देवगति मे जो कष्ट, पीडा एव वेदनाए भेलता है, उसका श्रेय भी इसी साथी को है । पाप की दोस्ती मानव को नरक के महागर्त मे गिराने वाली है, ससार मे परिभ्रमण कराने वाली है । पाप कर्म वघने के अनेक कारण है । अशुभ विचारो की जितनी तरगे हैं, उतने ही पाप कर्म के भेद हो सकते है । परन्तु सरलता से सब की समझ मे आ जाए, इसलिए ग्रागमो मे पाप कर्म बन्ध के १८ भेद माने है -१ प्राणातिपात, २ मृपावाद, ३ प्रदत्तादान, ४ मैथुन, ५ परिग्रह, ६ क्रोध, ७ मान, ८ माया, ९ लोभ, १० राग, ११ द्वेप, १२ कलह, १३ ग्रभ्याख्यान, १४ पैशुन्य, १५ परपरिवाद, १६ रति- अरति, १७ मायामृपा और १८ मिथ्यादर्शनशल्य | १ प्राणातिपात- किसी भी प्राणी के प्राणो का नाश करना, हिंसा करना । २ मृषावाद - असत्य भाषण करना । ३ अदत्तादान- दूसरे के अधिकार मे रही हुई वस्तु को उसके मालिक की विना इच्छा एव श्राज्ञा के उठाना तथा दूसरे के अधिकारो, हितो एवं स्वार्थो का अपहरण करना । ४ मैथुन - व्यभिचार का सेवन करना । ५ परिग्रह - - घनादि वस्तु एव सुख - साधनो पर आसक्ति
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy