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________________ MP PAAAAAAAAAAAAAAAAnnoAM १४७.............. तृतीय अध्याय पुण्य कर्म का वन्ध होता है। " २ पान-पुण्य- इसी तरह शुभ भावो से, निस्वार्थ बुद्धि से पानी का दान देने से भी पुण्य कर्म का वध होता है। ३ लयन-पुण्य- पात्रादि उपकरण देने से भी पुण्य होता है। ४ शयन-पुण्य- रहने के लिए मकान देने से भी पुण्य होता है। ५ वस्त्र-पुण्य- वस्त्र का दान करने से भी पुण्य होता है ।। ६ मन-पुण्य- मन से दूसरों का हित चाहने से पुण्य होता है। ७ वचन-पुण्य- गुणिजनो का गुणर्कीतन करने एव सबके साथ प्रम-स्नेह से मधुर भाषण करने से भी पुण्य वध होता है। ८ काय-पुण्य- शरीर से दूसरो की सेवा-शुश्रूषा करने, दुखियो के दुख को दूर करने का प्रयत्न करने से, दूसरो के हित मे अपना जीवन लगा देने से भी पुण्य बघता है। ९ नमस्कार-पुण्य- गुण युक्त व्यक्ति को नमन करने तथा उस की विनय भक्ति करने से पुण्य वन्ध होता है। पुण्य ४२ प्रकार से उदय मे आता है । यह सत्य है कि वह वधन रूप है। परन्तु इससे वह एकात त्याज्य नहीं है। क्योकि ससार समुद्र पार करने मे वह सहायक होता है। जैसे समुद्र के एक किनारे से दूसरे किनारे तक पहुचाने के लिए नौका उपयुक्त साधन है । फिर भी वह सदा पकडे रखने योग्य नहीं है । उसका उपयोग अपने मनोनुकूल स्थान पर पहुचने तक ही रहता है । इच्छित स्थान पर पहुंचते ही वह त्याज्य है। इसी तरह पुण्य भी १३वे गुणस्थान तक पहुचने के लिए उपयोगी है । वाद मे उसकी कोई आवश्यकता नहीं रह जाती है । अत छद्मस्थ अवस्था मे पुण्य उपादेय है,तो वीतराग अवस्था मे त्याज्य है । अस्तु पुण्य को एकान्त रूप से त्यागने योग्य बताना या मानना गलत है।
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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