________________
-
~
~
१४९
तृतीय अध्याय रखना, भोगो मे मूछित होकर रहना।
६ क्रोध- आवेश मे आना। ७ मान- अहकार या अभिमान करना। ८ माया- छल-कपट करना, धोखा देना।
९ लोभ- पदार्थो की तृष्णा रखना, लालच करना। १० राग- किसी मनोनुकूल पदार्थ, व्यक्ति एव परिस्थिति के प्रति मोह-ममत्व रखना।
११ उप- प्रतिकूल पदार्थ, व्यक्ति एव परिस्थिति के आने पर जल उठना तथा उनसे नफरत एव घृणा करना।
१२ कलह- वाग्युद्ध करना। १३ अभ्याख्यान- किसी पर झूठा दोषारोपण करना। १४ पैगुन्य- चुगली खाना । १५ परपरिवाद- किसी की भूठी या सच्ची निन्दा करना।
१६ रति-अरति- विषय-भोगो मे आनन्दित होना रति है और प्रतिकूल सयोग मिलने पर दुखी होना अरति है।
१७ मायामृपा- कपटयुक्त झूठ बोलना।
१८ मिथ्यादर्शनगल्य- तत्त्व में अतत्त्व बुद्धि तथा अतत्त्व मे तत्त्व बुद्धि रखना या प्रत्येक कार्य ससाराभिमुख होकर करना।
मोटे रूप से पाप बघ के ये अठारह कारण वताए गए है। इस तरह के और भी अशुभ विचारो का चिन्तन, कटुभाषा का प्रयोग एव दुष्कर्मो मे प्रवृति करना भी पाप कर्म के वध का कारण है। वह पाप कर्म ८२ प्रकार से उदय मे पाता है । विविध योनियो मे अशुभ साधनो का उपलब्ध होना पाप कर्म का फल है।
जैनो की यह मान्यता रही है कि पाप कर्म के वध के साथ कुछ पुण्य प्रकृतिए तथा पुण्य के साथ कुछ पाप प्रकृतिए वधती है। तो यहा