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________________ wovvvvvvv vo ............. .....प्रश्ना के उत्तर.................. १५.० यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि फिर यह क्यों कहा गया कि पुण्य का फल शुभ एव पाप का फल अगुभ होता है ? तर्क ठीक है। प्रदेग बन्ध की दृष्टि से पुण्य के साथ-साथ पाप प्रकृतिए एव पाप के साथ पुण्य प्रकृतिए भी बघती है, परन्तु उनकी मात्रा नगण्य-सी होती है। इसलिए उनका वहा कोई मूल्य नहीं रहता है। दूसरी बात यह है कि पुण्य से शुभ एव पाप से अगुभ कर्मो का जो बन्ध कहा गया है, वह प्रदेश वन्ध की दृष्टि से नही, प्रत्युत अनुभाव (रस) वन्ध की दृष्टि से कहा गया है । अत पुण्य के साथ कुछ पाप की एव पाप के साथ कुछ पुण्य की प्रकृतिया का प्रदेश वन्व होता है, फिर भी जो अनुभाव (रस) का वन्ध होता है, वह पुण्य का गुभ एव पाप का अशुभ ही होता है और फल भी अनुभाव के अनुसार मिलता है । अस्तु "शुभ पुण्यस्य" तथा "अशुभ पापस्य" का कथन असगत नही है । पाप कर्म मानव को सदा गिराने वाला है। उससे आत्मा भारी वन कर नीचे की ओर ही गति करती है। वह उसे कभी ऊपर नही उठने देता है। उसको सदा नरक, तिर्यञ्च आदि गतियो मे भ्रमण कराता रहता है । अत. पाप एकात त्याज्य है। किसी भी तरह से वह आचरणीय नही है। आसत्र तत्व जिस मार्ग से कर्म आते हैं, उसे पालव कहते हैं । आगम मे ऐसे पाच आस्रवो का उल्लेख मिलता है- १ मिथ्यात्व, २ अविरति, ३. प्रमाद,४ कषाय और ५ योग। आत्मा के जिन भावो-विचारो से कर्मो का आगमन होता है, उन परिणामो को भावास्रव कहते हैं और कर्म पुद्गलो के आगमन को द्रव्य-पानव कहते है । जवकि मिथ्यात्व आदि
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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