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________________ ....प्रश्नों के उत्तर ...............३४६ नारा हो जाता है । बौद्धधर्म का यह सिद्धात जैनधर्म में सर्वथा विप रीत है। . इसी प्रकार जनसाधुत्रो में और बौद्धसाघुमो की मर्यादामो में बहुत अन्तर पाया जाता है। जैनसाधु का जीवन तपश्चरण की दृष्टि से बड़ा ही कठोर जीवन होता है । जनसाधु कड़ी से कड़ी सरदी पड़ने पर भी प्राग नहीं से कते, प्यास के मारे कण्ठ सूख जाने पर भी .,सचित्त जल का सेवन नहीं करते। चाहे कितनी भूख लगी हो पर फल आदि कच्ची सब्जी नही खाते । प्राग और हरी सब्जी का स्पर्श नहीं करते । बुढापा या बीमारी होने पर भी कोई मवारी नहीं करते। सदा सर्वत्र नगे पाव और नगे सर पाद- भ्रमण करते है। पैरो मे जूते नही पहनते, कौडो पैसा आदि कुछ भी धन अपने पास नहीं रखते सूई तलक रात्रि को अपने पास नही रहने देने। ऐनक के फ्रेम मे भी बांस का खण्ड रखते है. उसमे लोहे का तार नहीं रखते। ऐसे अनेकों नियम हैं, जो बौद्ध साधुओ में नहीं पाए जाते। -- - बौद्ध साधुओ को सचित्त जल के सेवन से कोई संकोच नही, वे "सहर्ष सचित्त वनस्पति को अपने उपयोग मे लाते हैं। रेल, टागा,मोटर हवाई जहाज आदि जितनी भी सवारिया हैं, वे सभी का प्रयोग करते हैं। रुपया, पंसा, सोना, चादी आदि सभी प्रकार का धन अपने काम में लाते हैं । वौद्धसांधुनो को यदि उनका कोई शिष्य घर जीमने का निमत्रण देता है, तो वे उस के निमत्रण को स्वीकार करके उसके घर चले जाते हैं किन्तु जैन साधु ऐसा नहीं करते। जैन साधु किसी की निमंत्रण नहीं मानते, किसी के घर जाकर नही जीमते। वे तो “घरो से भिक्षा मांग कर लाते है, और अपने स्थान में प्राकर ही भोजन का ग्रहण करते हैं । इस प्रकार बौद्ध साधु और जन साधु के
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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