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________________ २७..........प्रथम अध्याय परन्तु जैन दर्शन की मौलिक मान्यता सात की नही, दो की है। और भगवती सूत्र मे अस्ति और नास्ति दो भग के आधार पर सात भग बनाए हैं और गागेय अनगार के प्रश्नोत्तर के आधार पर आचार्यों ने सैकडो भग बनाए है और आगे कहा गया कि इस तरह हम सख्यात, असख्यात, अनन्त भग बना सकते है। परन्तु मूल भग दो ही हैं। वौद्धो एव कुछ वैदिक दर्शनो मे भी चार भग माने हैं । वे चारो भग अस्ति और नास्ति इन दो पर ही आधारित है। और इस का कारण यह है कि वस्तु न एकान्त रूप से अस्ति रूप है और न एकाततः नास्ति रूप । क्योकि वस्तु उभयात्मक है । एक अपेक्षा से वह अस्ति रूप दिखाई देती है और दूसरी अपेक्षा से देखने पर नास्ति रूप से प्रतीत होती है। और दोनों रूप समान है। न अस्ति नास्ति से बलवान है और न नास्ति अस्ति से अधिक वलिष्ठ है। दोनो समान रूप से वस्तु की यथार्थता को प्रकट करते है। इसलिए वस्तु के यथार्थ स्वरूप का परिज्ञान करने के लिए दोनो की सत्ता को स्वीकार करना जरूरी है। अत अस्ति और नास्ति दो भग मुख्य है, गेष भग उसी के आधार पर स्थित हैं । वस्तु को समझने की कोटिये-श्रेणिये सात है, इसलिए सात भग माने गए है। १०-दर्शन ग्रन्थो मे स्याद्वाद पर यह भी आक्षेप किया गया है कि स्याद्वाद को स्वीकार करने वाले केवलज्ञान के अस्तित्व को नहीं मान सकते । क्योकि केवलज्ञान एकान्त रूप से पूर्ण होता है ! उसको उत्पत्ति के लिए बाद मे किसी की अपेक्षा नही रहती ! तत्त्व की दृष्टि से स्याद्वाद और केवलज्ञान मे अन्तर नही है । वस्तु का ज्ञान जिस रूप मे केवली करते है, उसी रूप मे स्याद्वादी भी करता है । पदार्थ का ज्ञान करने की दृष्टि दोनो की भिन्न नही है। दोनो में भेद सिर्फ इतना ही है कि केवलज्ञानी जिस वस्तु को प्रत्यक्ष ज्ञान से
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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