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________________ प्रश्नों के उत्तर नाम स्याद्वाद है। जो वस्तु जिस रूप मे स्थित है उसे तद् यथार्थ स्वीकार करना, तथा तदितर रूप मे अयथार्थ मानने का नाम स्याहाद है । इस अपेक्षा से स्याद्वाद भी यदि एक दृष्टि से अयथार्थ या असत्य है, तो वैसा मानने में हमे कोई आपत्ति नहीं है । हम इस बात को मानते है कि स्याद्वाद भी कयचित् सत्य है और कथचित् मिथ्या। अनेकान्त दृष्टि से स्याद्वाद सत्य है, यथार्थ है और एकान्त की अपेक्षा से वह अयथार्थ है, मिथ्या है। जिस वस्तु का जिस दृष्टि से प्रतिपादन हो सकता है, उस दृष्टि से उसका विवेचन करने मे स्याद्वाद सदा तत्पर है। स्याद्वाद को समझने के लिये स्याद्वाद की दृष्टि से देखने पर ही उस का यथार्थ रूप समझ मे आ सकता है । अत स्याद्वाद अनेकान्त दृष्टि की अपेक्षा से यथार्थ है । क्योकि वस्तु अनेक धर्मयुक्त है, इसलिए उसका विवेचन अनेकान्त दृष्टि से ही हो सकता है, एकान्त दृष्टि से नही । इस कारण अनेकान्त की अपेक्षा वह सत्य है, यथार्थ है और उस से वस्तु का यथार्थ ज्ञान होने मे किसी तरह की वाधा उपस्थित नही होती और एकान्त दृष्टि से वह अयथार्थ है । इसलिए एकान्त दृष्टि से तत्त्व का विश्लेषण करना जैनो को इष्ट नही है। ९-कुछ विचारको का कथन है कि सप्तभगी में प्रयुक्त पीछे के तीन भग व्यर्थ हैं । यदि एक दूसरे के सयोग से सख्या बढ़ाना हो तो सात ही क्यो अनन्त भग बना सकते हो ! हम ऊपर इस बात को स्पष्ट कर चुके हैं कि मौलिक भग दो हैं- १ अस्ति और २ नास्ति । शेष सभी भग विवक्षाभेद से बनते है। यहा तक कि तीसरा और चौथा भग भी पूर्ण स्वतन्त्र नही कहा जा सकता । यह ठीक है कि जैनाचार्यों ने सात की सख्या को स्वीकार किया है, और सात भंग मानने का कारण भी विस्तार से बताया है।
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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