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________________ vvvvvm २६९.. षष्ठम अध्याय थी। अपराधी के अपराध को प्रमाणित किए बिना उसे दण्डित करना किसी भी दृष्टि से उचित और न्याय संगत नही कहा जा सकता। ईश्वर ससार का गासक है। इसी प्रकार उसे भी व्यवस्थित ढग से ही काम लेना चाहिए। किन्तु ऐसा होता नहीं है । जब कोई व्यक्ति मनुष्य योनि मे जन्म लेता है, और जन्म से ही वह अन्धा और पगु शरीर वाला होता है। तो उस व्यक्ति को, उसके परिवार को तथा उसके देशवासियो को यह ज्ञात नही होता कि यह अन्धत्व और पगुत्व किस कर्म का फल है ? किसी को भी यह मालूम नहीं होने पाता कि यह सदोष शरीर किस कर्म के कारण इस व्यक्ति को प्राप्त हुआ है ? सब के सर्वथा अज्ञात रहने के कारण उक्त दुष्ट शरीर को प्राप्ति के मूलभूत दुष्कर्म का किसी को ज्ञान नहीं होने पाता। इस से दण्ड देने का यह उद्देश्य कि अपराधी भविष्य मे अपराध न करे, और लोगो को इस से शिक्षा प्राप्त हो, सफल नहीं होने पाता। ईश्वर का कर्तव्य बनता है कि वह किसी भी व्यक्ति को दण्ड देने से पूर्व उसके अपराध को प्रमाणित करे, यह स्पष्ट करे कि इस व्यक्ति ने अमुक दुष्कर्म किया था, इस लिए उसको अमुक दण्ड दिया जाता है। ऐसा करने से ईश्वर की दण्डमर्यादा सफल हो सकती है । और ऐसा करने से ही जनमानस उस दुष्कर्म से भयभीत होगा, और भविष्य मे उस से सुरिक्षत रह सकेगा। इसके अतिरिक्त, ऐसा करने से ही दण्डित व्यक्ति के मानस का सुधार होगा और वह भी भविष्य मे पाप करने मे सकोच करेगा । परन्तु ईश्वर ऐसा कुछ नहीं करता। ७-जो ईश्वर कर्म का फल देने का सामर्थ्य रखता है, उसमे अपराधी को दुष्कर्म करने से रोकने का बल भी रहता है । लौकिक व्यवहार भी ऐसा ही है। जो शासक डाकुओ के दल को उस के अपराध के दण्ड-स्वरूप जेल मे बन्द कर सकता है, अथवा प्राण दण्ड दे
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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