SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 168
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४५ तृतीय अध्याय प्राप्त मानव जीवन एव साधनो का उपयोग शुभ कार्य मे होता है और वह पुण्य का अनुवध करने मे सहायक बनता है। दूसरे प्रकार का-पुण्य वह है, जिसके द्वारा प्राप्त सामग्री का व्यय दुष्कर्मो मे होता है और उससे पुण्य के बदले पाप कर्म का संग्रह होता रहता है। अस्तु जो साधन वर्तमान मे पुण्य एव निर्जरा के कारण बनते है, वे पुण्यानुवधी पुण्य के उदय से मिले हैं और जिनके द्वारा पाप कर्मों का सग्रह होता है अथवा जो मानव-मन को विषय-वासना एव भोगो की ओर घसीटते है, वे पापानुववी पुण्य के उदय से मिले हैं। यह सत्य है कि उनको प्राप्ति के पीछे पुण्य एव शुभ कर्म का हाथ रहा है, परन्तु साथ मे भावना की विशुद्धता न होने से वे बाहरी रूप से सुख साधन होते हुए भी जीव के लिए घोर दु ख एव पतन के कारण बनते हैं। __ यह नितात सत्य है कि दुनिया की सारी व्यवस्था कर्मों के अनुसार होती है। पूर्व मे किए हुए कर्म यदि उनकी निर्जरा नही की है तो अवश्य उदय मे आते हैं। अत. हमे मिलने वाले अच्छे एवं बुरे साधन कर्म के परिणाम ही हैं । परन्तु, इतना होते हुए भी यह आत्मा सर्वथा कर्मो के अधीन नही है । उसको शक्ति कर्मो से भी अधिक है । वह केवल पुण्य-पाप के भरोसे पर ही नही है । यदि ऐसा ही हो तव तो वह कभी भी पुण्य-पाप के बधन से मुक्त-उन्मुक्त हो ही नही सकेगी। प्रात्मा को वर्तमान मे जो कुछ मिला है,वह कर्म का फल है,परन्तु उस कर्म प्रवाह को बदलने की शक्ति भी प्रात्मा मे है। वह पापानुवधी पुण्य से प्राप्त हुए साधनों को शुभ, शुद्ध, शुद्धतर और शुद्धतम वना सकती है, दुख के निमित्तो को सुख रूप मे वदल सकती हैं, कर्म वध के कारणो को कर्म तोडने के साधन वना भी सकती है। हरिकेशी को पापानुवधी पुण्य एव अशुभ कर्म के उदय से कुवडा शरीर, कुरूप चेहरा अव्यवस्थित अगोपाग, कर्कश स्वर मिला था। वह सबके लिए उपहास
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy