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________________ प्रश्नो के उत्तर १४४ " कपाय युक्त योग प्रवृत्ति से समागत कर्म पुद्गलो का आत्म प्रदेशो के साथ प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश रूप से सवध होने को वध कहते है । ग्रश्रव और वॅव - शुभ और अशुभ रूप से दो प्रकार का होता है । शुभ को पुण्य और अशुभ को पाप भी कहते है । नए कर्म पुद्गलो के आगमन को रोकने की साधना को सवर तथा पूर्व सचित कर्मों को क्षय करने की क्रिया को निर्जरा कहते हैं । इस तरह नए कर्मों का आगमन रोक कर पुराने कर्म का क्षय करने से एक समय कर्मो का प्रात्यान्तिक नाश हो जाता है, आत्मा कर्म वन्धन से मुक्त हो जाता है। इस तरह अनादि काल से कर्म प्रवाह सवद्ध ग्रात्मा उनसे सदा के लिए उन्मुक्त हो जाता है । यह वात पुण्य, पाप, ग्राश्रव, सवर, वध, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वो के द्वारा स्पष्ट की गई है । हम यहां इस पर जरा विस्तार से विचार करेंगे । है पुण्य तत्त्व "शुभ पुण्यस्य " जिन कर्म प्रकृतियों का फल शुभ होता है, सुख रूप मे मिलता है, उन्हें पुण्य कहते हैं । पुण्य शब्द का अर्थ है 'पुनातीति पुण्यम्' अर्थात् जो कर्म आत्मा को पावन - पवित्र बनाने का कारण बनता है, वह पुण्य है । मनुष्य जन्म, स्वस्थ गरीर, निर्दोष पाच इन्द्रियें, शास्त्र का श्रवण नद्गुरु का सपर्क, धर्म करने की अभिरुचि, यहाँ तक की तीर्थकर नाम कर्म का बंध भी पुण्य से होता है । पुण्य जीवन का विकासक है, उसके कारण जीव को विविध सुख साधन एव जीवन विकास की सामग्री प्राप्त होती है । जैनाचार्यों ने पुण्य दो प्रकार का माना है- १ पुण्यानुवधी पुण्य और २ पापानुबंधी पुण्य । पहला पुण्य वह है जिस के द्वारा पुण्य से
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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