SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम अध्याय ता, आश्चर्य एव आकाक्षा नही है । यह माना जा सकता है कि मनुष्य की ग्रसहाय प्रवस्था के साथ भय का मिश्रण रहा हो । समस्त भारतीय चितन धारा ने धर्म की उत्पत्ति का मूल कारण दुख माना है । जैन विचारको का भी यही अभिमत रहा है कि धर्म का उद्भव भव-भ्रमण के दुःखों से छुटकारा पाने के हेतु हुया है । धर्म का महत्त्व - पूर्ण कार्य मनुष्य को जन्म-मरण के दुःखो से मुक्त करना है । दुखो का मूल कारण राग-द्वेष है । राग-द्वेष कर्म के बीज हैं. कर्म मोह से उत्पन्न होते हैं । कर्म ही जन्म और जन्म-मरण हो दुख है ।। ऋत. धर्म का को क्षय करना । इसलिए जो धर्म राग-द्वेष के क्षय करने का, कामक्रोध को जीतने का मोह अधकार को हटाने का मार्ग बताता है, वह जेनवर्म है । अथवा यो कहिए कि राग - द्वेप विजेता जिन के द्वारा प्ररूपित वर्म जेनधर्म है । मरण के मूल कारण हैं मुख्य उद्देश्य है-राग-द्वेष J प्रश्न- धर्म की परिभाषा क्या है ? उत्तर- धर्म शब्द' घृ'वारणे वातु से वना है । अत धर्म का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ हुआ "धारणात् धर्म. " अर्थात् जो धारण किया जाय, वह धर्म है । जैनागमो मे वस्तु के स्वभाव को भी धर्म कहा है § । प्रत्येक वस्तु का अपना स्वतंत्र स्वभाव होता है । वही स्वभाव उस का धर्म माना जाता है । जैसे— प्रति का स्वभाव उष्ण है, पानी का स्वभाव शोतल है । ऋत. अग्नि का धर्म उष्णता है और पानी का धर्म शीतलता । अनि का सयोग पा कर पानी भी उष्ण हो जाता है । उस का स्पर्श उष्ण प्रतीत होता है। अधिक उष्ण हुआ तो हाथ आदि शरीर 3 उत्तरा, अ. ३२, गा ७ । Sवत्युमहावो धम्मो ।
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy