________________
प्रश्नो के उत्तर
के अवयवो पर गिरने से उन्हें भी जला देता है । अग्नि के ससर्ग से इतनी विकृति आने पर भी वह अपने मूल स्वभाव को नहीं त्यागता । पानी चाहे जितना गर्म क्यों न हो श्राग पर डालने पर वह उसे बुझा देगा । गर्म होने पर भी आग को बुझाने का उसका स्वभाव नष्ट नहीं हुआ । इसी तरह आत्मा के अहिंसा, सयम, तप आदि गुणों को या निजी स्वभाव को भी धर्म माना है। इस के अतिरिक्त नियमोपनियम, विधि निषेध, विधान, परपरा, व्यवहार, ग्राचरण, कर्तव्य, अधिकार, न्याय, सद्गुण, नैतिकता, क्रिया - काण्ड, सत्कर्म यादि अर्थो में वर्म का इस्तेमाल होता रहा है । वैदिक परम्परा मे वेद - विहित विधि-विधान या क्रिया - काण्ड को वर्म माना गया है । वौद्ध परम्परा में धर्म का अर्थ वह नियम, विधान या तत्त्व है, जिस का बुद्ध प्रवर्तन करते है, जिने धर्म-प्रवर्तन भी कहते हैं ।
-
इस तरह धर्मं शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। सभी विचारक अपनी-अपनी वारणा या मान्यता के अनुरूप विभिन्न स्थानों पर अनेक तरह से अर्थ करते हैं । अत धर्म की कोई एक सर्व सम्मत व्याख्या उपलब्ध नही होती है । उस का ऐसा कोई लक्षण नहीं है, जो सभी परम्पराओ को मान्य हो । फिर भी हम इतना कह सकते हैं कि समस्त विचारक इस बात से सहमत हैं कि वर्म मानव विचार योर आचार की आवश्यक अंग है । दोनों अग जीवन विकास के लिए ग्रावश्यक है । एक को हम अन्तरग कहते हैं और दूसरे को बाह्य । ग्रन्तरंग विचार प्रधान होता है ओर वाह्य चारित्र प्रधान । इसे हम दर्शन और चारित्र के नाम से भी जान सकते हैं ।
'धम्मो मंगलमृक्किट्ठ, अहिसा संजमो तवो" । दशनैकालिक, अ.१, गा. १
Panv