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________________ २६१ षष्ठम अध्याय है, तुझे कुछ पता नही है । मैं सब कुछ जानता हू, इसीलिए निश्चिन्त, हो कर पाप कर रहा हूं। मुझे पता है कि मैं जो पाप कर रहा हू, यह मेरी बुद्धि का परिणाम है। बुद्धि की प्राप्ति भाग्य से होती है। भाग्य अच्छा हो तो वुद्धि अच्छी मिल जाती है, और भाग्य खराब हो तो बुद्धि भी खराब मिल जाती है । भाग्य का निर्माता परम पिता परमात्मा स्वय है । परम पिता परमात्मा सर्वज्ञ है, सर्वदर्शी हैं, घट-घट का ज्ञाता है। उसे पता है कि मैं इसके भाग्य का जो निर्माण कर रहा हू, इससे इसे दुष्ट बुद्धि की प्राप्ति होगी । बुद्धि को दुष्टता से यह पाप करेमा, लोगो को दुख देगा। यह सब कुछ जानते हुए भी परम-पिता परमात्मा ने मेरा ऐसा भाग्य बनाया । अत भाई साहिब ! पाप करने मे मुझे कोई दोष नही लगता। मैं जो कुछ कर रहा हू, उसका उत्तरदायित्व मुझ पर नहीं है। उसकी सव जवाबदारी' परमात्मा पर है। तूने सुना नही- करे करावे आपोआप, मानुष के कुछ नाही हाथ !* कितनी स्पष्टता के साथ-कहा- गया है कि जो कुछ कराता है, वह स्वय परम पिता परमात्मा कराता है। मनुष्य के वश की कोई बात नहीं है। अत. भाई ! -तू चिन्ता क्यो करता है ? परमात्मा के दरवार मे जव. मुझ से पूछा जाएगा तो मैं झट जवाब दे दूगा। मेरे पास घडा-घड़ाया जवाव तैयार पडा है । क्या कहूगा? तू भी सुनले - खुदा जब मुझ से पूछेगा कि यह तकसीर किसकी है ? • तो कह दू गा कि इस तकदीर में तहरीर किसकी है ? समझ गया है न ? परमात्मा जब मुझ से पूछेगा कि यह तकसीर (भूल या पाप) किसने की है ? तो उत्तर मे मै कह-दू गा- प्रभो ! , * पता भी हिलता है तो उसकी रज़ा से ।
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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