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________________ द्वितीय अध्याय मे जो विभिन्नता दृष्टिगोचर होती है, उस मे चिन्तन का एक विकास क्रम सन्निहित है । उपनिषद् मे यह विकास क्रम और स्पष्ट हो जाता भृतवादी मनुष्य ने पहले वाह्य शक्तियो की महान् ताकत को देख कर उन्हे विश्व का मूल कारण माना हो ऐसा लगता है । परन्तु मनुष्य को इतने मात्र से सतोष नही हुया, उसने अपना ध्यान दुनिया के भौतिक पदार्थों पर से हटा कर अपने अदर लगाया, तो उसे जीवन मे महान् स्फूर्ति का दर्शन हुआ । उस ने अन्य भौतिक पदार्यों को अपेक्षा अपने अन्दर अधिक स्फूर्ति का अनुभव किया। और वह इस निर्णय पर पहुँचा हो कि मेरा शरीर ही आत्मा है । देह के अतिरिक्त कोई आत्म तत्त्व हो ऐसा दिखाई नहीं पड़ता। छान्दोग्य उपनिषद् मे एक कथा दी है कि असुरो मे वैरोचन और देवो मे से इन्द्र प्रजापति के पास आत्म स्वरूप जानने को गए। प्रजापति ने उन के सामने दो पानी से भरे वर्तन रख कर उस मे देखने को कहा और फिर पूछा कि तुम क्या देख रहे हो? दोनो ने उत्तर दिया कि नख से ले कर शिखा तक अपना ही स्वरूप । प्रजापति ने कहा, बस यही आत्मा है। इस से असुरों को तो सतोष हो गया, वे देह का परिपोषण करने मे व्यस्त रहने लगे, परन्तु इन्द्र को इस उत्तर से सतोप नही हुआ । देहवादियो की मान्यता है कि अन्न से ही शरीर वना है और अन्न से ही वह वढता है, अत. आत्मा अन्नमय ही है "अन्नमय एव प्राणा"*। जैन और बौद्ध दोनो के शास्त्रो मे इस मत को तज्जीवतज्छरी* तैत्तरीय २,१,२। wrimum mmmmmmam
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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