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तृतीय अध्याय
है । ईश्वर या कर्म जैसी कोई वस्तु नही है । बुद्ध चरित्र मे कहा गया है कि जगत का वैचित्र्य स्वभाव से ही है । जैसे - काटे को कौन तीक्ष्ण करता है? पशु-पक्षियो मे इतना वैचित्र्य क्यो है ? इन सब प्रश्नो का एक ही उत्तर दिया गया है कि स्वभाव से । गीता और महाभारत मे भी स्वभाववाद का उल्लेख मिलता है। इनके मत से पदार्थों का स्वभाव ही ऐसा है कि वे अपने-अपने रूप में परिणत हो जाते हैं । स्वभाव वादियो का यह श्लोक सर्वत्र प्रसिद्ध है
" नित्य सत्वा भवन्त्यन्ये नित्यासत्वाश्च केचन । विचित्रा: केचिदित्यत्र तत्स्वभावो नियामकः ॥ अग्निरुष्णो जलं शीतं समस्पर्शस्तथानिलः । केनेदं चित्रितं तस्मात् स्वभावात् तद्व्यवस्थितः ।। " यदृच्छावाद
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यदृच्छा शब्द का अर्थ अकस्मात् होता है । इस मत के मानने वालो का कहना हैं कि सृष्टि के निर्माण मे कोई कारण नही है । बिना किसी नियत कारण के ही अक्समात् कार्य निष्पन्न हो गया । कुछ लोग स्वभाववाद और यदृच्छावाद को एक ही मानते हैं । परन्तु ऐसा नही है, क्योकि स्वभाववादी सृष्टि के निर्माण मे स्वभाव को कारण मानते हैं, परन्तु यदृच्छवादी उसके पीछे कोई कारण नही मानते हैं । नियतिवाद
नियतिवादी लोक-परलोक मानते थे । परन्तु वे किसी भी कार्य 'को कर्म के आधार पर नही मानते थे । उनको यह कहना था कि जैसा - होना निश्चित है वैसा ही होगा, उसके लिए किसी तरह का पुरुषार्थ करने की श्रावश्यकता नही है । इस मत का उल्लेख वौद्ध पिटको एव