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________________ ८४. प्रश्नों के उत्तर जैनों का द्वैतवाद जैनो ने विश्व की रचना मे जीव और अजीव दो मूल तत्त्व माने है और जीव भी एक नही, अनेक माने हैं । विशेषावश्यक भाष्य में भगवान महावीर का शिष्यत्व स्वीकार करने के पहले इन्द्रभूति गौतम की शकाप्रो का निराकरण करते हुए भगवान महावीर ने विश्व के मूल मे एक ब्रह्म मानने की बात को तात्त्विक एव व्यवहारिक दृष्टि से अनुचित बताया और अनन्त जीवो के स्वतत्र अस्तित्व को वास्तबिक बताया। गौतम ने प्रश्न किया था कि जैसे लोक मे सर्वत्र एक आकांश व्याप्त है, उसी तरह नारक, देव, मनुष्य और तिर्यञ्च गतियो मे स्थित विभिन्न जीवो में एक ही आत्मा मान लें, तो क्या आपत्ति है ? इस का स्पष्टी करण करते हुए भगवान महावीर ने कहा- हे गौतम ! ऐसा होना संभव नहीं है। आकाश सर्वत्र एक इसलिए मान्य है कि उस मे सर्वत्र एक समान लक्षण पाया जाता है। परन्तु जीव या आत्मा के सवध मे ऐसी बात नहीं है। प्रत्येक जीव एक दूसरे से विलक्षण है। इसलिए उन्हे सर्वत्र एक है, ऐसा नही माना जा सकता। क्योकि लक्षण भेद से वस्तु का भेद स्वतः सिद्ध हो जाता है । इसका साधक प्रमाण इस प्रकार दिया जा सकता है- जीव अनेक-भिन्न हैं, क्यो कि उनमे लक्षण भेद है, जैसे-घट-पट आदि । क्योकि जो वस्तु भिन्नअनेक नही होती उसमे लक्षण भेद भी नही होता, जैसे- आकाश । यदि जीव को एक ही माना जाए तो फिर ससार-मोक्ष आदि की व्यवस्था वन ही नही सकेगी। और जो हम एक व्यक्ति को दुखी और दूसरे को सुखी तथा किसी को वन्धन युक्त और किसी को मुक्त-सिद्ध अवस्था मे देखते या अनुभव करते हैं, यह प्रत्यक्ष व्यवहार भी गलत
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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