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अष्टम अध्याय
भारतीय दर्शन मे वौद्ध दर्शन का भी अपना स्थान है । परन्तु इसके पीछे तथागत बुद्ध का चिन्तन कम है । बुद्ध ने भी श्रात्मा-परमात्मा के सबंध मे कुछ सोचा है । परन्तु उनके चितन मे दार्शनिक गहराई एव सूक्ष्म दृष्टि नही है और न उसने दार्शनिक की दृष्टि से सोचा ही है । उन्होंने जो कुछ सोचा-विचारा है, वह युग के प्रवाह से विवश होकर ही स.चा है । जहा तक हो सका उन्होने इन प्रश्नो को अव्याकृत कह कर टालने का प्रयत्न किया है । जब प्रश्न टाले नही जा सके तव कुछ उत्तर देना पड़ा। उसके लिए तथागत बुद्ध ने उपनिषद् एंत्र वैदिक परम्परा द्वारा स्वीकृत एकात नित्यवाद का दोषयुक्त वता कर क्षणिकवाद की स्थापना की और कई जगह विभज्यवाद के सहारे 'लोक-परलोक के प्रश्नों से छुटकारा पाने का प्रयत्न किया ।
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एक बार मालुंक्यपुत्त ने बुद्ध से लोक के शाश्वत अशाश्वत, सांत एवं अनन्त्र तथा जीव एव शरीर को भिन्नता एवं प्रभिन्नता श्रादि के विषय मे प्रश्न पूछे । परन्तु तथागत ने लाचार मार्ग मे वैराग्यउपशम, अभिज्ञा (लोकोत्तर ज्ञान), सवोवि (परमज्ञान) तथा निर्वाण (कायन्तिकी दु.ख निवृत्ति) उत्पन्न करने मे साधक न होने के कारण उन्हे अव्याकृत ( व्याकरण - कथन के अयोग्य, अनिर्वचनीय) कहा । इसी तरह पोठ्ठपादद्वारा पूछे गए प्रश्नो को भी अव्याकृत कहकर टाल दिया गया । इस स स्पष्ट होता है कि वुद्ध दार्शनिक एवं आध्यात्मिक चर्चाओ से सदा भागते रहे हैं। उन्होंने अपने भिक्षुओ को सदा श्रध्यात्मवाद
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एव दर्शन शास्त्र से दूर रह कर कर्तव्य मार्ग पर चलने का उपदेश
* चूलमाल व्य सुत्तत, ६३, मज्झिमनिकाय, पृष्ठ, २५१-५३, दीघनिकाय पोट्टपादसुत्त, १/९