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________________ प्रश्नो के उत्तर ३१२ उसकी ग्रात्मा संसार मे भटकतो रहती है। इसलिए प्रत्येक मनुष्य को पिता वन कर ही स्वर्ग सिधारना चाहिए। ग्रन्यया गतिहीन जीवन ससार मे चक्र काटता रहेगा, उसे कही शानि की प्राप्ति नहीं होगी । किन्तु जनधर्म का ऐसा विश्वास नहीं है। जैनधर्म कहना है कि गति का सम्बन्ध व्यक्ति के कर्मों के साथ है। शुभ कर्म मे शुभ गति, और अशुभ कर्मों से अशुभ गति की प्राप्ति होती है । पुत्र पिता को दुर्गति ने बचा कर सुगति मे नहीं पहुंचा सकता और पिता भी पुत्र को मुगत मे नही ले जा सकता है । यदि दूसरों के कर्मों का मनुष्य का फल मिलने लगे तो अपना किया हुआ कर्म निष्फल हो जायगा । परलोक को बात को जाने दीजिए । इमी लाक मे पुत्र पिता के अशुभ कर्मों का, न समाप्त कर सकता है, और न स्वयं उनका उपभोग कर सकता है । पिता यदि आखी से अन्धा है, कर्मों का सताया हुआ है तो ऐसे पिता को पुत्र आखे नही दे सकता, उसके कर्म-जनित राग को शात नहीं कर सकता। जब इस लोक मे पुत्र पिता को उसके कर्मजन्य दुख से बचा नही सकता, तो वह परलोक मे उसे कैसे बचा सकता है ? उसे शुभ गति मे कैसे पहुचा सकता है ? ?? दूसरी बात, पुत्र को प्राप्ति सभोग से होती है, स्त्री पुरुष का पारस्परिक संगम होने से पुत्र प्राप्त हो सकता है। जहां सगम है, मैयुन है, वहा ब्रह्मचर्य का भग हाना अनिवार्य है । ब्रह्मचर्य को परम धर्म माना गया है । शास्त्रकारो ने तवसु वा उत्तम् वमचेर यह कह कर समस्त तथा मे ब्रह्मचर्य का श्रेष्ठ तर माना है । तप धर्म का हो रूपातर है । ऐसी दशा मे ब्रह्मचर्य का भग करना धर्म का भग करना नाम गति है, किन्तु प्रस्तुत में गति शब्द सद्गति, शुभस्थान में उत्पत्ति का वोधक है । "
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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