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________________ ३५९ नवम अध्याय t मानते हैं, तो आागम को असत्य मानने का प्रश्न ही समाप्त हो जाता है | आगम भी क्या है ? प्राप्त पुरुषो द्वारा कथित विचार ही तो आगम है और प्राप्त पुरुष वह है, जिसने राग-द्वेष का क्षय कर दिया है । वीतराग होने के कारण उसकी वाणी मे किसी भी तरह का विरोध, असत्य एव अपूर्णता नही रह जाती है । इसलिए सर्वज्ञ पुरुष द्वारा कहे गए ग्रागम सत्य एव प्रामाणिक है । उस मे सशय करने का बिल्कुल अवकाश ही नही रहता है। 1 इस तरह हम देख चुके हैं कि जैन दर्शन एवं चार्वाक दर्शन मे पर्याप्त भेद है। फिर भी, जैन दर्शन अनेकान्तवादी है । इसलिए वह चार्वाक दर्शन मे भी आशिक सत्य को देखता है । क्योकि जैन दर्शन भी अपेक्षा विशेष से भौतिकवाद को भी स्वीकार करता है । वह चार्वाक की तरह एकात रूप से, भौतिकवाद का समर्थन नहीं करता और न एकात रूप से उमे झुठलाता ही है । जैन दर्शन सापेक्षवाद का स्वीकार करता है, इसलिए वह अध्यात्मवादी होते हुए भी एक नय से, एक अपेक्षा से भौतिक पदार्थों को भी साधना मे सहायक मानता है । वह लाल कपड़े को देखने मात्र से बिगडने वाले बैल की तरह भौतिकता के नाम मात्र से चिढता नही है। वह प्रत्येक वस्तु मे रहे हुए सत्य को निष्पक्ष भाव से देखता एव स्वीकार करता है । यही कारण है कि भौतिकता एवं आध्यात्मिकता का समन्वय करते हुए दार्शनिक विचारक श्री श्रानन्दघन जी नेमिनाथ भगवान की प्रार्थना करते हुए लोकायत ( चार्वाक-भौतिक) दर्शन को भगवान के पेट की उपमा दो है, अर्थात् ग्राध्यात्मिकता के साथ अश रूप से भौतिकता को भी स्वीकार किया है * । * लोकायतिक कूख जिनवर नी, अश विचार जो कीजे । 5
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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