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________________ २९७ सप्तम अध्याय ? वैदिक धर्म है, और कर्मणा जातिवाद की परम्परा का प्रतिनिधित्व जैनधर्म करता है। जैन धर्म जन्मना जातिवाद का सर्वथा विरोधी है । जैनधर्म कहता है कि मनुष्य जब जन्म लेकर आता है तो वह क्या ले कर आता है ? वह हड्डियों का और मास का ढेर ही तो लेकर आता है । क्या किसी की हड्डियो पर वाह्मणत्व की, किसी के मास पर क्षत्रियत्व को या किसी के चेहरे पर वैश्यत्व की मोहर लगी हुई होती है। या ब्राह्मण किसी और रूप में, और क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र किसी और रूप मे आता है? ग्राखिर शरीर तो शरीर ही है । वह पुद्गलो का पिण्ड स्वरूप है । उसमे जाति-पाति का कोई नैसर्गिक भेद नही है । वह अपने आप मे पवित्र या अपवित्र नही है । पवित्रता या अपवित्रता का आधार आचरणगत शुद्धता और अशुद्धता है । प्राचरण ज्यो- ज्यो पवित्र होता चला जाता है, त्यो त्यो शुद्धि बढती चली जाती है, और ज्यो- ज्यो वह अपवित्र होता चला जाता है, त्यो त्यो प्रशुद्धि वढती चली जाती है । किसी वर्ण विशेष मे जन्म लेने मात्र से न कोई पवित्र हो सकता है और न कोई अपवित्र या अशुद्ध हो सकता है। शुद्धता या शुद्धता का जन्म के साथ कोई सम्बन्ध नही है । यही जैन धर्म का साम्यवाद है ।" 2 वेदों की पौरुपेयता वैदिक धर्म वेदो मे प्रतिपाद्य विषय को ईश्वरीय ज्ञान कहता है, और उसे पौरुषेय - पुरुषकृत नही मानता है । उसका विश्वास है कि वेदो का एक-एक शब्द ईश्वर का अपना कहा हुआ है और वह ऋषियो के माध्यम से वेदो के रूप मे हमारे सामने अवस्थित है । यही उसकी अपौरुपेयता है, किन्तु जैनधर्म वेदो को अपौरुषेय नही मानता है । उसका विश्वास है कि वेद पुरुषकृत है । इनकी रचना मनुष्य ने की
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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