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प्रश्नो के उत्तर
संवर तच्च
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सवर शब्द सम् उपसर्ग पूर्वक 'वृ' धातु से बना है । 'वृ' का अर्थ रोकना या अटकाना होता है । इस तरह सवर का अर्थ होता है अच्छी तरह से या भली-भाति रोकना । वह भी पाच प्रकार का है१ सम्यक्त्व, २ व्रत-प्रत्याख्यान, ३ ग्रप्रमाद, ४ कषाय और ५ योगो का गोपन । श्रात्मा के जिन शुद्ध, निर्मल एव पावन - पवित्र परिणामो से कर्मो का आना रुकता है, उन परिणामो को भाव सवर कहते हैं और उस विचार परणति से जो आते हुए कर्म रुक जाते हैं, उन्हे द्रव्य सवर कहते हैं । अस्तु आत्मा के जिस उज्ज्वल - समुज्ज्वल भावना से कर्मों के आने का रास्ता वद होता है या श्राते हुए कर्म रुकते हैं, उस भावना एव प्रक्रिया को सवर कहते हैं ।
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आध्यात्मिक जीवन मे सवर को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है। जीवन का मूल लक्ष्य सर्व कर्म वन्ध से मुक्त होना है और इस कार्य मे आत्मा तव तक सफल नही हो सकती, जब तक वह कर्म के आगमन को नही रोक देती है । क्योकि कर्मो का आना जारी रहेगा तो वह कर्म वधन से कभी भी मुक्त नही हो सकती, भले ही वह कितनी ही लम्बी तपश्चर्या क्यो न करती रहे । तपस्या से वह पूर्व बन्धे कर्मो का क्षय करेगी, परन्तु वर्तमान एव अनागत मे आने वाले कर्मो के द्वार को उसने नही रोका है, तो वह पुराने कर्मों के स्थान मे नए कर्मो का वध करती रहेगी । इस तरह आत्मा कभी भी कर्म वधन मे छूट नही सकेगी। अत यह जरूरी है कि आत्मा सवर के द्वारा वर्तमान एव अनागत मे आने वाले कर्मों को रोके और निर्जरा के द्वारा पूर्व वधे कर्मो का क्षय करे, इससे वह निष्कर्म वन जाएगी और निष्कर्म बनना ही निर्वाण या मुक्ति को प्राप्त करना है । यही आत्मा का मूल उद्देश्य